Thursday, July 26, 2012

पुनर्जन्म


मांडवी से बात करते-करते फोन कट गया तो कैलाश को अपनी बहन की याद आयी। मोबाइल उंगलियों में फंसा कर गोल-गोल घुमाते हुए वह सोच रहा था कि उसकी बहन ने यह बात इतने विश्वास से कैसे कही थी कि बिना स्त्री के कभी एक भी कदम चल नहीं सकोगे, जबकि उस समय वह काफी छोटी थी? वैसे भी उम्र में वह कैलाश से काफी छोटी है। उस छोटी सी बच्ची को यह सब किसने बताया होगा? क्या उसके होने ने? या फिर मां ने? क्या छोटी सी उम्र में ही उसने स्त्री और पुरुष का मतलब समझ लिया था? मां अक्सर उससे चुपके-चुपके बातें किया करती थीं। इस बीच कोई पहुंच जाता तो दोनों चुप हो जाती थीं या बात बदल देती थीं। तो क्या मां ने तमाम ऐसी बातें उसे बतायी होंगी, जो कैलाश को कभी नहीं बतायी गयीं?
मांडवी से बात करते-करते उसके मोबाइल का बैलेंस खत्म हो गया था। इस पर उसने सोचा कि मोबाइल की ध्वनि तरंगों की ही तरह यदि मन की तरंगों को डीकोड करके संदेशों का आदान-प्रदान किया जा सकता तो कितना अच्छा होता! फिर दूर बैठे किसी व्यक्ति से बात करने के लिए आदमी को मशीनों का मोहताज नहीं होना पड़ता। प्रकृति ने मनुष्य की तरह ऐसी रचनात्मक बात क्यों नहीं सोची? निश्चित ही उसने मानव की रचना करते समय आज की जरूरतों को ध्यान में नहीं रखा होगा, वरना उसका एक छोटा सा अविष्कार मनुष्य को कुछ हद तक मशीनों से मुक्ति दे सकता था।

साथ ही उसके जी में यह भी आ रहा था कि वह मांडवी से पूछे कि अचानक वह उसके लिए इतनी जरूरी क्यों हो गयी है? अचानक सब कुछ इतना रहस्यमय और रोमांचकारी कैसे हो गया? वह एक खूबसूरत-सा सैलाब लेकर आयी और वह उसी में बह चला। उसका अपना कुछ भी अब उसका नहीं रह गया।
कैलाश ने फिर से उसका नंबर डायल किया और ‘ये काल करने के लिए आपका बैलेंस काफी नहीं है’ सुनकर मोबाइल बिस्तर पर फेंक दिया। उसे झल्लाहट हुई कि प्रकट-रूप प्रेम में पैसा इतनी बड़ी भूमिका अदा कर रहा है! लेकिन वह फिर मांडवी और अपनी बहन के बारे में सोचने लगा। उसकी बहन अठारह वसंत देख चुकी है। अब वह घर से कम ही निकलती है। घर की लड़कियां बड़ी होकर लड़कियां नहीं, बल्कि, घर की इज्जत हो जाती हैं और उनका घर से बाहर निकलना मतलब इज्जत का चला जाना है। उसके भी घर वालों का मानना है कि अब वह बड़ी हो गयी है।
आज कैलाश मांडवी के प्रति अपने दिल में उठ रही टीस को अपनी बहन की निगाहों से तौल रहा है-वह मुझसे छोटी है, अनपढ़ है, लेकिन उसके तजुर्बे कितने बड़े हैं? उसने जो कहा था, आज कितना सच लग रहा है! मांडवी के बिना वह वास्तव में एक भी कदम नहीं चलना चाहता।
उसके दिमाग में एक और बात बार-बार सर मार रही है कि क्या उसकी बहन भी किसी से प्रेम करती होगी? क्या जिस तरह मांडवी से आगे मैं कुछ और नहीं सोचना चाहता, इसी तरह उसने भी किसी की दुनिया बसा दी होगी? आज से कुछ साल पहले कैलाश यह बात बिलकुल नहीं सोच सकता था, क्योंकि उसके दिमाग़ में भी स्वाभाविक रूप से एक ग्रंथि मौजूद थी जो लड़कियों को घर की इज्जत के सिवा कुछ नहीं समझती। उस सोच के मुताबिक, प्यार करना तो किसी तीसरे ग्रह की बात है, परंतु आज जब वह खुद प्रेम में है, उसे यह सोच कर बुरा नहीं लग रहा कि क्या उसकी बहन भी किसी से प्रेम करती होगी।
आज कैलाश का मन कर रहा है कि वह अपने इस प्रेम की सूचना अपनी बहन को दे। उससे मन की ढेर सारी बातें करे। उससे बताये कि अब वह एक लड़की से प्रेम करने लगा है।
उसने उठकर कमरे की खिड़की खोल दी और हवा का एक झोंका अंदर आ गया, जिससे उसको महसूस हुआ कि अभी इस दुनिया में बहुत सारी ताजी सांसें बाकी हैं और आदमी को फिलहाल मरने के बारे में या इस दुनिया से बाहर की बातें नहीं सोचनी चाहिए।
उसने फिर एक बार बहन को याद किया- वह क्या कर रही होगी? क्या वह भी मेरी तरह सपनों के शून्य मे गोते लगा रही होगी? या फिर फांसी लगाने या कहीं भाग जाने के बारे में सोच रही होगी? क्या मेरी तरह वह भी प्रेम कर सकने के लिए आजाद हो सकती है? और मांडवी, वह भी तो अपने चारों ओर तमाम दीवारें लेकर मिलने आती है और सहमी-सहमी सी रहती है कि कहीं कोई देख न ले!
पांच साल पहले तक कैलाश अपने गांव में था। उसके मां- बाप, भाई-बहन सब साथ थे। पिता जी के पास जीवन के जितने अनुभव थे, वे सब महिलाओं के ईर्द-गिर्द के कड़वे अनुभव थे। उनके सामने महिलाओं का कहीं कोई जि़क्र आता तो वे अक्सर ही तल्ख़ हो जाते। महिलाओं के बारे में उनका तकिया कलाम था- ‘‘मेहरारू जाति ही कुतिया होती है।’’ महिलाओं के बारे में इसी तरह के भांति-भांति के ‘मौलिक’ जुमले सुनते-सुनते  कैलाश बड़ा हुआ था, सो महिलाओं के बारे में उसकी भी धारणा कुछ इसी तरह बन गयी थी। अब उसकी भी जब किसी स्त्री से कहा सुनी होती या कोई इस तरह की कोई बात होती तो वह भी उसी तरह की भाषा इस्तेमाल करता। मसलन, स्त्री ऐसी होती है, स्त्री वैसी होती है। मज़ेदार बात तो यह कि पूरे गांव तो क्या, पूरे आस पास के समाज में स्त्रियों के बारे में सम्मानजनक ढंग से सोचना मना था। स्त्रियों के प्रति नरम रुख़ रखने वाला मर्द ‘मर्द’ नहीं, ‘मेहरा’ है। स्त्रैण है। इस लिहाज से गांव के कई मर्द ‘मेहररुआ’ घोषित हो चुके थे। उन्हें मर्दों की सूची से बेदख़ल किया जा चुका था। ये वे लोग थे जो अपनी घरवालियों के छोटे-मोटे कामों में हाथ बंटा दिया करते थे। ऐसे समाज में रहने वाला व्यक्ति आखि़र इन संस्कारों से अछूता कैसे रह सकता है?
एक दिन कैलाश का बहन से झगड़ा हो गया। यह तब की बात है जब कैलाश अठारह की उम्र पार कर चुका था। तू-तू मैं-मैं होते होते कैलाश ने उसका बाल पकड़ कर झुका दिया और पीठ पर एक मुक्का दे मारा। छोड़ते ही बहन ने पास में पड़ी झाड़ू उठायी और कैलाश को दनादन कई झाड़ू रसीद कर दिया। इस पर कैलाश बोला- देखो तो झाड़ू कैसे झाड़ू से मार रही है। दोष होता है कि नहीं? तभी कहते हैं कि बिटिया जाति ही कुतिया होती है। बहन तिलमिला उठी। ठीक वैसे, जैसे यह जुमला उसके बाप के मुंह से सुन कर उसकी मां तिलमिला उठती थी। वह बोली- तुम तो कुत्ते नहीं हो न? बड़े अच्छे हो, लेकिन कुतियों के बिना चलेगा नहीं एक सेकेंड। अभी अभी थाली भर के पेल के आये हो, वह किसका बनाया था? कोई काम पड़ता है, तो झट से किसी कुतिया को ही बुलाते हो। देखना, अब यह बात याद रखना। अगर मेहरारू कुतिया होती है तो बियाह मत करना। वह भी तो कुतिया ही होगी? पैदा भी तो हुए हो, कुतिया की ही कोख से। बड़ा अकलमंद बनता है कमीना...!
वह बड़बड़ाती रही और कैलाश चुपचाप घर से निकल गया। यह पहली बार था जब वह बहन को ऐसे बोलने दे रहा था। वह देर तक बड़बड़ाती रही। कैलाश बाहर खड़ा हो गया। तब तक मां दरवाजे तक आयी, कैलाश ने पलटकर मां को देखा। मां ने घूर कर कैलाश को देखा और अंदर चली गयी। कैलाश की आंखें भर आयीं। जी में आया अंदर जाये और बहन से माफी मांग ले। पर यह उसके पुरुषत्व के खिलाफ लगा। वह माफी मांगने तो नहीं गया पर यह बात उसे कई रोज तक सालती रही। शाम को जब बहन खाना खाने के लिए बुलाने आयी तो मन ही मन अपराधबोध हुआ। जी में आया कि उससे माफी मांग ले। उसने ऐसा किया तो नहीं, पर खाना खाते हुए वह शर्म से गड़ा जा रहा था। यही बात सुबह बहन ने जता दी थी कि बिना कुतियों के नहीं चलेगा एक सेकेंड।
खैर, दिन बीता और बात आयी गयी हो गयी। भाई बहन में अक्सर झगड़ा होता रहता था। लेकिन वह एक बात जैसे उसके दिमाग की तंत्रिकाओं में अंकित हो गयी थी। हमेशा की तरह आज फिर उसने सोचा कि इस बार जब भी मिलेगा तो बहन से उस बात के लिए माफी मांग लेगा।
मांडवी से उसका मिलना खुद से मिलने जैसा था। आत्मसाक्षात्कार। यह वही स्त्री तो है जो पुरुष को तिल-तिल कर गढ़ती है! पुरुष के भीतर के विध्वंसकारी तूफान में स्थिरता और शांति भरती है। उस तूफान को अपने में जज्ब करती है। वह उसकी जड़ता में गति भरती है। अपनी सर्जना-शक्ति से उसके द्वारा किये गये विध्वंस की भरपाई करती है। पुरुष फिर भी उसे दरकिनार क्यों करता है?
शुरू में दोनों के बीच कोई खास बातचीत नहीं होती थी, मगर उनके बीच एक मौन संवाद शुरू हो गया था जो कभी नहीं टूटा। लहर और हवा के बीच की तारतम्यता की तरह दोनों के बीच एक महीन धागा था, जिससे दोनों के सिरे जुड़ गये थे। वे उसी सहारे चलते जा रहे थे और चलते जा रहे थे।
एक दिन दोनों अकेले में मिल गये। दोनों को परिचय की औपचारिकता निभाने की जरूरत नहीं थी। एक ने हाथ बढ़ाया और दूसरे ने हौसले से थाम लिया। उनके रास्ते पहले से तय थे। उन्हें एक साथ चलना था। वे दोनों मुक्तिकामी थे और जैसे एक दूसरे को ही तलाश रहे थे। उन्हें कोई करार नहीं करना पड़ा। कोई प्रदर्शन नहीं करना पड़ा। उन्हें कसमें नहीं खानी पड़ीं। उन्हें एक दूसरे के बारे में जो जानना था, वह उनकी जबीनों पर लिखा था। वह उन्होंने पढ़कर जान लिया। जो कुछ कहना था, आंखों ने कह दिया। एक दूसरे को लेकर जिज्ञासाओं का ज्वार उठता तो आखों से टकराकर शांत हो जाता। वे दोनों आगे बढ़ते रहे। वे अपना प्रारब्ध पहले से जानते थे, जैसे पहले से ही सब तय था कि उन्हें क्या करना है। सब कुछ ऐसे घट रहा था, जैसे पूर्वनियोजित था। जैसे वे पहली से लिखी पटकथा का अनुसरण कर रहे थे।
कैलाश को यह सब बहुत अजीब लगता। वह हैरान था। उसे सबसे बड़ा आश्चर्य इस बात का था कि वह जब भी मांडवी से मिलता या उससे बातें करता तो उसे अपनी मां की याद आती। जब भी वह मांडवी के साथ अपने प्यार में पड़ने की बातें सोचता तो उसे अपनी बहन की याद आती। अनेक बार वह मांडवी में अपनी मां की छवि देख रहा होता और यह उसे बेहद सुखद लगता। उसे अपने भीतर आये इस परिवर्तन और इस अनूभूति पर बेहद आश्चर्य होता। उसके सामने स्त्री का एक ऐसा रूप प्रकट हुआ था जिससे वह निरा अपरिचित था। अब उसने जाना कि जिस लड़की को वह अब तक सिर्फ एक लड़की से ज्यादा कुछ नहीं समझता था, वह अनगिनत भूमिकाओं में लीन एक मानव है। अब उसे लगने लगा कि अगर उसके जीवन से मांडवी को हटा दिया जाय तब तो वह सिर्फ एक बेजान सा पुतला बचेगा! पुरुष के जीवन में स्त्री की इतनी बड़ी भूमिका! पुरुष तो स्त्री के बगैर अधूरा है?
कैलाश की अनुभूतियां उसे किसी तीसरे जहान में खींच रहीं थीं, जहां वह एक सुंदर बंधन में बंधकर स्वतंत्र हो जाना चाहता था। उसकी अवस्था उस छोटे बच्चे सी हो गयी थी जो बहुत देर से अपनी मां को ढूंढ रहा था और मां मिली तो उछलकर उससे जा लिपटा।
उनके बीच दीवारें ढहने लगीं, वर्जनाएं टूटने लगीं। एक सुखद अनुभूति का समंदर उछाल मारने लगा। कलियां चटकने लगीं। खुुशबुएं उड़ीं और उछल कर हवा पर सवार हो गयीं। अब पूरी कायनात में उनके लिए जैसे कोई अवरोध नहीं रह गया। जमीन से आसमान तक तमाम रास्ते खुल गये। वे दोनों जो भी राह चुनते, वह आगे जाकर एक हो जाती। दोनों अपनी हर राह पर एक-दूसरे को पाकर स्तंभित रह जाते। अब वे अक्सर मिलने लगे। अब वे दोनों अपने दिन रात आपस मंे बांट कर जीने लगे।
एक दिन कैलाश बहुत व्याकुल था। उसने मांडवी को मिलने को बुलाया। शहर से बाहर एक सुनसान पार्क में मिलना तय हुआ।
शाम को पांच बज रहे थे। यह अगस्त का महीना था। बारिश होकर निकल गयी थीं। हवाएं भीग कर सिमट गयी थीं और हल्की-हल्की सिहरन के साथ फिजा में तैर रही थीं। मौसम खुशनुमा था और कैलाश परेशान। उसके भीतर की बेचैनी उसकी आंखों में पढ़ी जा सकती थी। वह कुछ कह नहीं रहा था और मांडवी उसके बोलने का इंतजार कर रही थी। दोनों संकोच के पर्वत ओढ़े एक बेंच पर बैठे थे। काफी देर बाद दूर क्षितिज की ओर देखते हुए कैलाश बोला- कितना कोलाहल है?
मांडवी मुस्करायी- कहां?
- पूरे वातावरण में।
- ऐसा तुम्हें लग रहा है। मौसम तो काफी अच्छा है। चिढि़यों की चहचहाहट कितनी लग रही है।
- पर मुझे ऐसा लग रहा है।
- किसी के भीतर का मौसम जरूरी नहीं कि बाहर के मौसम से मेल खाये ही।
- मतलब...?
- बुद्धू कहीं के....।
 कैलाश ने गौर से उसकी ओर देखा, दोनों की आंखें टकराकर झुक गईं। मांडवी को कैलाश की आंखों में छोटे बच्चे-सी अत्यंत आकर्षक लगने वाली एक निश्छलता दिखी। उसे अजीब सी अनुभूति हुई और उसकी आंखें भर आयीं। उसने मुंह दूसरी ओर घुमा लिया और काफी देर सन्नाटा गूंजता रहा। अचानक उसने कैलाश की ओर मुंह घुमाया तो देखा कि कैलाश उसकी ओर बड़े गौर से उसे देख रहा है। उसके भीतर की बेचैनी उसकी आंखों में झलक रही है। मांडवी ने बेंच पर टिके कैलाश के हाथ पर धीरे से अपना हाथ रख दिया और बोली- परेशान क्यों  हो?

कैलाश मौन रहा। चारों ओर सन्नाटा था। कहीं से कोई आवाज नहीं आ रही थी। कहीं कोई पत्ता नहीं खड़क रहा था। एक संयोग का सुर गूंज रहा था, जिसमें दोनों चुपचाप डूब रहे थे, उतरा रहे थे। कुछ देर बाद कैलाश अचानक सिहर उठा। मांडवी ने पूछा- क्या हुआ?
- मुझे अजीब लग रहा है। सिहरन-सी हो रही है।
- सिहरन...अच्छा-अच्छा सा कुछ... लहरों की तरह पूरे वजूद में बह निकलने वाला कुछ....अनछुआ सा कुछ...
- हां, लहराते समंदर-सा उफनता हुआ कुछ...।
- मैं देख सकती हूं तुम्हारे भीतर के इस समंदर को।
- ऐसा क्यों हो रहा है मांडवी... पहले तो ऐसा कुछ नहीं हुआ था?
- हुआ न हो, पर था सब कुछ पहले से था, बस जरा सी मिटटी हटा दी, फिर सब दिखने लगा पानी ही पानी।
- यह कैसे संभव है?
- कौन जाने, पर देखो न! मैं खुद जैसे समंदर बन गयी हूं और लगातार पिघल रही हूँ तुम्हारे स्पर्श से...।
- पर मुझे तुममें समंदर तो नहीं दिखता?
- क्या दिखता है?
- आकाश....एक अंतहीन शून्य दिखता है तुम्हारे भीतर, जहां सैकड़ों संसार पनप सकते हैं।
- मैं आकाश हूं? तो ठीक! अपनी उंगली मेरी नीली स्याही में डुबाओ और इस धरती पर कुछ ऐसा लिख दो कि आज से कहीं नफरत ना रह जाये। कोई दीवार नहीं। बस प्यार ही प्यार हो हर तरफ.....।
- लिख तो दिया... अपने दामन पर गौर करो न! कितनी सारी तहरीरें हैं... आसमान में चांद जैसी।
मांडवी कांप उठी। दोनों एक गहन सन्नाटा उफना उठा। दोनों लहरों पर सवार हो गये। तूफान सा उठने लगा और वे गतिमान हो चले। तूफान का झोंका उन्हें बहुत करीब ले आया। पहाड़ जैसा संकोच पिघल कर पानी हो गया। लड़की ने अपना आंचल पानी की सतह पर फैला दिया। वह आंचल शिकारे में तब्दील हो गया। दोनों ने शिकारे में प्रवेश किया। शिकारा हवा के रुख पर बह चला। वे काफी दूर निकल गये। दूर दूर तक चांदनी की चादर बिछी थी। आसमान में रंग-बिरंगे गुब्बारे अठखेलियां कर रहे थे। दोनों की आंखें जगमगा उठीं। आंखों में उग रहे असंख्य सपने हरे हो गये। उन दोनों ने आजतक ऐसा जहान नहीं देखा था। मांडवी खुशी से चीख उठी। कैऽऽऽलाऽऽश....
कैलाश चैंक गया- पागल हो गयी हो...?
- नहीं, हो रही हूं, हो जाना चाहती हूं....ऐसा जहान यहां कैसे संभव है? इस धरती पर ऐसा जहान कैसे संभव है? कैलाश! देखो, चारों तरफ देखो। यहां कहीं भी किसी सपने का जनाजा नहीं उठ रहा। यहां लिखी तहरीरों को पढ़ो। यहां कोई स्त्री कभी बलत्कृत नहीं हुई। यहां बेगुनाह शंबूक कभी मारा नहीं गया... और तुम... तुम मेरी आंखों में अपना चेहरा पढ़ो। तुम इतने खूबसूरत कभी नहीं थे। वह रो पड़ी... कैलाश स्तब्ध। वह कुछ समझ नहीं पा रहा  था। यह दुनिया वास्तव में अद्भुत थी। चारों ओर अप्रतिम सौंदर्य छलक रहा था।
मांडवी की आंखों में खुशी का ज्वार फूट रहा था।
वह देर तक सिसकती रही। हल्की-हल्की बौछार में दोनों  खड़े-खड़े भीगते रहे। गुलाबी तासीर वाली हवा उनके आस पास तैर रही थी। कैलाश ने मांडवी को गौर से निहारा। मांडवी कितनी खूबसूरत और विराट है। वह बिखरती जा रही है और उसके भीतर नये-नये जहान खुलते जा रहे हैं। ऊंचे-ऊंचे पहाड़, गूंजती हुई, भीगी भीगी वादियां, नाचती हुई नदियां, बाग-बागीचे.... कैलाश उसकी ओर खिंचने लगा। उसकी आंखों में कुछ मासूम आंसू थे, आकांक्षाएं थीं और मांडवी यह साफ देख पा रही थी। वह उनकी अपील समझ रही थी और सब कुछ समेट लेना चाह रही थी।
कैलाश बोला-आज तुम इतनी रहस्यमयी क्यों दिख रही हो?
-मैं जैसी थी, वैसी ही हूं। बस, यहां जरा-सा विस्तार मिल गया है, यहां बंधन नहीं है, यहां वर्जनायें नहीं हैं, यहां कोई संकोच नहीं है, यहां तुम मुझे समझने की पूरी कोशिश कर पा रहे हो और मैं तुम्हारे सामने पूरी की पूरी खुल कर बिखर सकती हूं। यहां कोई मेरे पंख कतरने वाला कोई नहीं है, शायद इसलिए। पर क्या मेरे रहस्य अवांछनीय हैं?
-नहीं मांडवी, जरूरी हैं, क्योंकि तुम्हारे जो रहस्य आज मैं देख पा रहा हूं, पहले कभी नहीं देखे। ये रहस्य ऐसे तो बिल्कुल नहीं कि जिनसे भय खाया जाये। ये रहस्य तुम्हारे अस्तित्व में घुले हुए हैं। यही तुम्हारा सौंदर्य है। तुम निहायत खूबसूरत हो मांडवी...
वह शर्मा गयी। कैलाश उसे अपलक निहार रहा था। उसकी आंखों की रौशनी उसे भिगो रही थी। कैलाश ने दोनों हाथों से उसका चेहरा ऊपर उठाया और उसके माथे पर एक चांद उगा दिया। मांडवी रो पड़ी। कैलाश ने उसकी आंखों की नमी अपनी आंखों में उतार ली। दोनों इस अनुभूति को व्यक्त नहीं कर पा रहे थे। वे एक ऐसी दुनिया में थे, जहां हर पल मुक्ति का एक दरीचा खुल जाता है। उनकी निगाहें आपस में गुंथी हुई एक दूसरे से कह रही थीं कि हम इस दुनिया को ऐसे ही खूबसूरत रहने देंगे। हम यहां कोई दीवार नहीं खड़ी होने देंगे। हम इस दुनिया को मानवमुक्ति की दुनिया बनायेंगे।
मांडवी ने अपना हाथ कैलाश की ओर बढ़ा दिया। कैलाश ने अपने दोनों हाथों में उसकी हथेली कस ली। वह अंगारे की तरह गर्म थी और उसमें एक सुखद सी अनुभूति थी। उस अनुभूति वे दोनों कांप रहे थे। मांडवी उसकी ओर खिंची आ रही थी। वे एक दूसरे की सांसों की गरमाहट को महसूस कर रहे थे। दोनों की धड़कने सन्नाटे में पदचाप की तरह साफ सुनायी दे रही थीं। दोनो की सांसों में एक अर्थ भर गया। कैलाश की याचनापूर्ण निगाहें मांडवी की निगाहों से टकरायीं और एक खूबसूरत चिंगारी फूट पड़ी। कैलाश सोच रहा था कि शायद इसी तरह दुनिया में पहली बार आग का अविष्कार हुआ होगा। मांडवी सोच रही थी कि इसी तरह धरती पर सृजन की शुरुआत हुई हो। वह लरजते होठों से बुदबुदायी- कैऽऽऽलाऽऽश....। कैलाश ने अपना हाथ बढ़ाकर उसे अपने घेरे में कस लिया और बोला- माफ करना मांडवी, तुम्हारा रूप इतना विराट हो सकता है, मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मैं निरा अनजान था। तुम मेरे लिए उतनी ही जरूरी हो, जितना कि मेरा अस्तित्व। मुझे अपने भीतर कहीं जज़्ब कर लो। मैं मुक्त कर दो मांडवी। भर दो मेरा अधूरापन। यह खुशी मुझे पागल कर देगी....।
-हां कैलाश, अब हम साथ हैं- मुक्तिमार्ग के सहयात्री। हम एक दूसरे की आंखों से दुनिया देखेंगे, फिर जो भी हमें दिखेगा, बिना किसी विरोधाभास के वह असली दुनिया होगी। यहां हम मुक्त हो सकेंगे।
-मांडवी, तुम मुझे अपने भीतर जज़्ब करके दोबारा जनो। इससे मेरा परिष्कार होगा। मेरा पुनर्जन्म मुझमें तुम्हारे साथ चलने का सलीका भर देगा।
-पुनर्जन्म तो तुम्हारा हो रहा है कैलाश, देखो, ग्रहण लगा हुआ है। मैं महसूस कर सकती हूं, मैं देख सकती हूं कि तुम पिघल चुके हो और पुनः आकार ले रहे हो।
उसने कैलाश को अपनी बाहों में किसी बच्चे की तरह भींच लिया। उसका आंचल फिर शिकारे में तब्दील हो गया। वे दोनों फिर से उस पर सवार हो गये। अब उन्हें कोई भय नहीं था, अब कहीं कोई दीवार नहीं थी। वे किसी भी ओर जा सकते थे, कोई भी राह चुन सकते थे।

8 comments:

  1. अच्छी रचना। भाषा की शुद्धता आपके लेखन में चार चांद लगा रही है। बधाई। वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें तो और भी अच्छा।

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    1. bahut sunder rachna hai krishnakant ji ... bahut bahut badhayi

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    2. दीप्ति जी, आपका ब‍हुत बहुत आभार। आपने इतने लोगों को कहानी पढाई और खुद भी पढी। शुक्रिया...

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  2. बहुत सुन्दर रचना.....
    उत्तम शब्द संयोजन....
    बधाई

    अनु

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  3. बहुत अच्छी कहानी और लेखन भी

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  4. उपासना जी, संगीता जी, अनु जी... आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया।

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