Saturday, July 28, 2012

नौ बच्चों की मां


सूरज की दस्तक पर जमाना जागा तो ननका भी जाग गयी और उसके भीतर की बेचैनी भी। बिस्तर से उठकर वह बाहर आयी और इधर-इधर देखा कि हो सकता है जुगनू रात में घर आया हो और कहीं सो रहा हो। बरामदे में, दालान में सभी जगह देख आयी। इधर-उधर निगाहें दौड़ायीं, वह कहीं नहीं था। सूरज की पदचाप नजदीक आती जा रही थी और उजाला धीरे-धीरे अंधेरे को निगल रहा था। लोग एक और दिन जीतने के लिए तैयार हो रहे थे। ननका बेचैन-सी अंदर-बाहर कुछ एक बार आयी-गयी और फिर दरवाजे पर झाड़ू देने लगी। वह बड़बड़ाती जा रही थी-आखिर कहां गये? क्या उन्हें घर की चिंता नहीं सताती होगी? बिना बताये ऐसे क्यों चले गये? ऐसा तो नहीं कि गांव वाले जो अफवाह उड़ा रहे हैं, वह सही हो? अब तक जितना दुख दिया था, वह क्या कम था कि अब ऐसा भी दिन देखना पड़ेगा? और वह चुड़ैल! जाने किस माटी से बनी है कि दूसरे का बसा-बसाया घर उजाड़ने में उसे संकोच नहीं होता? 
पड़ोस में रहने वाली आरती लोटे में पानी लिए मैदान जाने को उधर से गुजरी तो पूछा लिया- अरे चाची! क्या हो गया, किस पर बड़बड़ा रही हो सुबेरे-सुबेरे?
ननका बोली- क्या होगा क्या? भगवान सब कुछ दे पर निखट्टू-आवारा मरद न दे। इससे भला है कि रांड़ ही रहो। सात दिन गुजर गये हैं ये अभी तक घर नहीं लौटे। जाने कहां कमाई करने गये हैं। 
आरती बोली- पता नहीं लगाया कहां गये? 
-पता क्या लगाना, उसी आवारा सरिता के चक्कर में होंगे कहीं। ढूंढ तो आयी... किसे पता कहां हैं? ये दर्जन भर छेवने और इतना बड़ा घर बार, सब छोड़ कर बुढ़ापे में इश्क फरमा रहा है कुत्ता। आने दो लौट कर फिर बताती हूं। आरती दबी-सी हंसी हंसती हुई आगे निकल गयी और ननका बड़बड़ाती हुए झाड़ू लगाती रही।
गांव के सभी लोग जानते हैं जुगनू का अड्डा सुखराम चैधरी की चैपाल है। अगर वह घर पर नहीं है तो वहीं होगा। सुखराम और जुगनू बचपन के दोस्त हैं और गांव वालों के मुताबिक, दोनों एक कान से सुनते हैं, एक ही आंख से देखते हैं। सुखराम की चैपाल उस इलाके की सबसे मशहूर अड्डेबाजी की जगह है। जहां पर तमाम लोग सारा दिन आते जाते रहते हैं। चिलम सुलगती रहती है और ठहाके उड़ते रहते हैं। उस चैपाल का अपना गौरवशाली इतिहास है जहां खपरैल की बल्लियों में तीन पीढि़यों से उड़ाया जा रहा चिलम का धुआं चिपका हुआ है। जुगनू और सुखराम के अलावा तमाम गांव वाले उस चिलम-परंपरा को बिना किसी व्यवधान के निभाते आ रहे हैं। जुगनू का बारह तेरह साल का वैवाहिक जीवन भी उसे इतना व्यस्त नहीं कर सका, कि उसका यहां आना-जाना कम हो पाता। वह जब कभी घर से गायब होता, तो सुखराम की चैपाल से ही बरामद होता।  
जुगनू के घूमने और कई-कई रोज घर से गायब रहने को लेकर ननका बेपरवाह रहती। उसके मायके में भी इससे इतर कुछ कहां है? उसका बाप भी तो यूँ ही घूमा करता है और घर-बाहर के सारे काम मां के जिम्मे होते हैं। यह तो हर घर की रवायत है। मरद दो चार मेहनत के काम कर लेता है तो घर की औरतों पर हनक जमाता है और घर का सारा बोझ औरतों पर डाल देता है, वही जुगनू भी करता। 
ननका यदा-कदा यूं ही पूछ लिया करती- कहां रहते हो सारा दिन? वह घुड़क देता- अपने काम से काम रखो। ननका चुटकी लेती- हां, क्यों नहीं? हम काम से काम से रखें और तुम इधर-उधर मुंह मारते फिरो। तुम्हारे खानदान भर का बोझ ढोने का ठेका हमी ने तो ले रखा है! इस पर जुगनू कहता- बड़ी बैरिस्टर मत बनो। जाओ भागो यहां से, अपना काम करो और बात टल जाती।
जब ननका की शादी हुई, उस समय वह पंद्रह बरस की थी। चेहरे-मोहरे से कुछ ज्यादा ही मासूम थी इसलिए बारह-तेरह की दिखती थी। व्याह कर ससुराल आयी तो कुछ दिन तो जैसे उत्सव का माहौल रहा। सब निहाल थे। जुगनू की मां गांव भर में जा-जाकर अपनी पतोहू का बखान करती। दुल्हन दिखाने के लिए औरतों को पकड़-पकड़ लाती। वे ननका की तारीफ करतीं- अरे भगवान, दुल्हन तो एकदम बिजली है। इस पर वह बल्लियों उछल जाती। 
जुगनू भी तब उसे जैसे सर आंखों पर रखता। जब तक घर में रहता, बस ननका के आगे-पीछे लगा रहता। ननका को लगता कि ससुराल में सभी उसको बहुत प्यार करते हैं। मगर यह उत्सव बस थोड़े दिन का था। कुछ ही दिनों में धीरे-धीरे करके घर से लेकर बाहर तक की सारी जिम्मेदारियां ननका के सिर आ पड़ी। उधर, जुगनू की आवारागर्द जीवनचर्या में कोई बदलाव नहीं हुआ। उसकी घुमक्कड़ी और अड्डेबाजी वैसे ही जारी रही, जैसी चली आ रही थी। ननका कुछ बोलती नहीं, क्योंकि वह जानती थी कि वह कुछ बोले भी तो उसकी बात सुनी नहीं जाएगी। 
दो-एक महीने में ही सारे घर का बोझ ननका के सिर आ पड़ा। वह घर में चूल्हा-चैका करती। बाहर पशुओं की देखरेख करती। घर के सब काम तो निपटाती ही, यदि कहीं से मजदूरी मिलती तो जुगनू के साथ वहां भी हाथ बंटाने जाती। धीरे-धीरे गृहस्थी के भार से उसके कंधे झुकने लगे। अपनी स्त्रियोचित कोमलता को मार कर भी वह कितनी ताकत, कितनी क्षमता जुटा सकती है? कभी-कभी लगता कि जैसे वह अपने नाजुक हाथों से पहाड़ धकेल रही हो। वह थक कर निढाल हो जाती। इस घड़ी में उसका साथ देने वाला नहीं होता।
दो बच्चों का बाप बनने के बाद जुगनू को दारू पीने की लत लग गई। अब वह रोज ही नशे की हालत में घर आने लगा। घर आकर वह तरह-तरह की वहशियाना हरकतें करता। ननका उसे मनाने समझाने की कोशिश करती और जब वह नहीं मानता तो ननका बुत बन जाती और जो वह करता उसे करने देती। तोड़-फोड़ से लेकर मारपीट तक सब होने लगी। ननका असहाय-सी मन ही मन कुढ़ती रहती और चुपचाप देखती रहती और बहुत बार वह खुद उसका शिकार हो जाती। घंटों उसका तमाशा चलता रहता और जब वह थककर सो जाता तो ननका खूब रोती। वह रात-रात भर आंगन में बैठी रहती और वहीं जमीन पर सो जाती। कुछ ही दिनों में उसके जीवन के जो सबसे नाजुक क्षण थे, वे नरक जैसे लगने लगे। 
जैसे-जैसे रात करीब आती ननका का जी लरजने लगता कि उसके पास सोना पड़ेगा और वह जाने क्या करेगा? वह काम करके थकी होती तो उसका मन होता कि वह जुगनू के पास जाये और वह उसे बुला कर अपने पास सुला ले। वह उसके पहरे में चैन की एक नींद को तरसती रहती और जुगनू अपनी धुन में मस्त रहता। उसने कभी ननका का मन टटोलने की कोशिश नहीं की। 
एक दिन गांव भर के लड़कों ने मिलकर चंदा इकट्ठा किया और चौधरी की चैपाल में निलहकी फिलम (ब्लू फिल्म) चलवायी गयी। फिल्म देख कर दारू के नशे में जुगनू घर आया और ननका से कहने लगा कि जैसा-जैसा फिलम में हीरोइन करती है, तू भी किया कर। ननका बोली- मुझे क्या पता वह क्या करती है? जुगनू बोला- मैं बताता हूं न, जो जो कहूं तू करती जा। जब ननका ने उस फिल्म के बारे में जाना तो सकते में आ गयी। वह गुस्से में उठी और कमरे से बाहर जाने लगी। जुगनू ने उसे पकड़ कर बिस्तर पर खींच लिया। वह उसे मना करती रही, समझाने की कोशिश करती रही और वह किसी आदमखोर भेडि़ये की तरह उस पर टूट पड़ा। यह रात ननका के जीवन की सबसे काली रात थी। जुगनू ने उसके कपड़े फाड़ दिये और उसे पीटते हुए घर से बाहर तक ले आया। ननका के चिल्लाने की आवाज सुनकर मोहल्ले वाले जाग गये। सब लालटेन-चिराग टार्च वगैरह लेकर दौड़े तो देखा ननका एकदम नंगी जमीन पर पड़ी है और जुगनू उसे बेतहाशा पीट रहा है। लोगों ने उसे झिड़क कर दूर किया और ननका को औरतें उठा कर घर ले गयीं। 
ननका के पड़ोस में रामधन पंडित का घर था। वह उनके यहां आती-जाती थी। पंडिताइन से उसकी खूब छनती थी। अपने परिवार में जैसे-जैसे वह अकेली होती गयी, पंडिताइन से उसकी नजदीकी बढ़ती गयी। वह आकर पंडिताइन के पास घंटों बैठी रहती। पंडिताइन के छोटे-मोटे कामों में हाथ बंटा देती। एक पंडिताइन ही थीं जिससे वह अपना दुख-सुख बांट सकती थी। पंडित को इस बात से चिढ़ होती। वे पंडिताइन पर चिल्लाते- यह पंडिताइन हरामजादी सारा खानदान डुबो देगी। जो कभी नहीं हुआ वह अब हो रहा है। उस चमारिन से जाने इसकी क्या दोस्ती है। इसको धरम-करम, छूत-अछूत कुछ नहीं समझ में आता। पंडिताइन अपने घर में दबंग थीं और गरज भर की मुंहफट भी। पंडित का बड़बड़ाना उनपर कोई असर नहीं डालता था। पंडित की बातों को अक्सर अनसुना ही कर देती थीं। और यदि कभी गुस्सा आता तो कहतीं- हे पंडित-लंडित, बेचारी एक घरी को आती है तो क्या ले जाती है हमारा? घर में मन ऊबता है तो आकर बैठ लेती है, मन बहल जाता है। कौन-सा छूत उसे चिपका है जो हमें लग जाएगा? तुम्हारी माई तुम्हें ब्यानी होंगी तो सबसे पहले चमारिन ही बुलायी गयी  होगी। ज्यादा पंडित मत बनो। चोर-चंडाल सबका सीधा लाते हो खाने के लिए। चमार सोना-चांदी, पैसा-रुपया दान में दे दे, तब नहीं मना करोगे और दरवाजे पर आकर बैठ जाये तो छूत लग गया? पंडित कुढ़ कर रह जाते।
ननका के चेहरे पर नाखून और दांतों के निशान हमेशा ताजा रहते थे। मुहल्ले की औरतें और लड़कियां इस बारे में कानाफूसी करतीं। कोई जुगनू को शैतान कहता तो पिशाच कहता। कुछ औरतें तो ननका को ही दोषी ठहरातीं कि रंडियों की तरह सज-धज कर रहती है तो क्या होगा? एक तो गोरी चमड़ी, ऊपर से झम्मक-झल्लो बनी रहती है। कुछ का कहना था कि यह जुगनू की नहीं, किसी और की कारस्तानी है। बहाना जुगनू का है, मगर असलियत कुछ और है। पंडिताइन ने एक रोज पूछा- तेर चेहरा हमेशा नोचा हुआ क्यों रहता है रे? उसने कहा- पहलवान मरद मिला है। उसी की मरदानगी है यह। मुझे नोच कर खाने में मजा आता है उसे। पंडिताइन ने सलाह दी- सिरहाने हंसिया रख कर सोया  करो। भतार की तरह आये तो ठीक, छिछोर-बरवार की तरह आये तो एक दिन लिंग काट लो हरामी का। किसी काम का न रह जाये, बस सारी मरदानगी उतर जाएगी। दाढ़ीजार कहीं का! 
पंडिताइन की नायाब सलाह पर ननका को हंसी आ गयी तो पंडिताइन उस पर भी गुस्सायीं- खीस क्या निपोर रही है छिनालों की तरह। जो कहती हूं कर, नहीं तो ये मरद सुअर की औलाद जीने नहीं देते। अरे मरद है तो साथ सोये। नोचा-नाची क्यों करता है हरामजादा? बात ननका के मन की होती, लेकिन जाने क्या था कि वह अपने मरद के बारे में बुरा नहीं सोच पाती थी। 
ननका के ससुराल आने के बाद से ही मोहल्ले के जितने लड़के थे, सब ननका को ताड़ते रहते और जब दाल नहीं गलती तो किसी न किसी से उसका नाम जोड़ देते। कोई कहता पंडित के लड़के से फंसी है, तभी तो रोज-रोज जाती है उनके घर। कोई कहता ठेकेदार से फंसी है, कोई कहता चैकीदार से फंसी है तो कोई कहता पैसे लेकर चलती है। यह और बात है कि उसे किसी के साथ कभी किसी ने देखा नहीं था। 
पंडित का बड़ा लड़का-रमाशंकर तो सच में यही समझ बैठा था कि ननका उसके घर उसी के लिए आती है। वह दिन भर ननका के घर के आरी-आरी मंडराता रहता। ननका जब उसके घर जाती तो भी आसपास ही रहता। ननका उसकी हरकतें समझती तो थी, लेकिन इस डर से कि किसी तरह का बवाल न हो, अनदेखा कर जाती।
एक दिन पंडिताइन ने उसे बुलाया कि थोड़ा सा चावल है, जिसमें कीड़े पड़ गये हैं। जरा आ जाओ तो मिल कर साफ कर लेंगे। वह पहुंची तो रमाशंकर बरामदे में मिल गया। बोला- आओ, आओ! तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था। आओ बैठो। ननका बात काटते हुए बोली- पंडिताइन कहां हैं? 
-अरे आ जाएंगी वे भी, पहले हमसे तो मिलो। उसने करीब आकर ननका का हाथ पकड़ लिया और बोला- आओ बैठो तो सही। तुम तो हाथ भी नहीं रखने देती हो! ननका ने हाथ झिड़क दिया और वापस लौट पड़ी। इतने में पंडिताइन घर से बाहर निकलीं- अरे ननका आओ! काहे जा रही हो? रमाशंकर मां की आहट पाकर वहां से हट गया था। ननका बोली- कोई दिखा नहीं तो हमने सोचा कि बाद में आते हैं। कहते हुए पंडिताइन का पांव छुआ और बैठ गई। 
रमाशंकर ऐसी हरकतें बार-बार करने लगा, पर वह क्या करे? सबके दुख पंडिताइन से बांट लेती थी, पर उनसे कैसे जाकर कहे कि तुम्हारा बेटा ही मुझ पर बुरी निगाह रखता है। कभी-कभी वह सोचती कि पंडिताइन का हंसिया वाला फार्मूला पहले इसी पर अपनाया जाये, लेकिन जाने क्या सोचकर वह हमेशा टालती रहती। 
ननका के घर के बगल में एक और झोपड़ीनुमा घर था जिसमें एक काका रहते थे। उनके मां-बाप उन्हें इसी नाम से बुलाते थे और अब पूरा मोहल्ला तो क्या, पूरा इलाका उन्हें इसी नाम से जानता था। जब ननका ससुराल आई, उस समय काका दस साल की सजा काटकर जेल से आये थे। उम्र कोई पैंतीस के आसपास थी। शादी नहीं हुई थी। जब वे जेल गये थे तो उनकी एक मां और छोटी बहन थी। जब जेल से लौटे तो कोई नहीं था। मां ने बेटी की औने-पौने शादी की और खुद जहाने-फानी से कूच कर गयीं। 
काका दस दरजा तक पढ़ थे और हरदम गुस्से में रहते थे, खास कर ऊंची जातियों के लोगों से। वे दस साल जेल की सजा काट कर आये थे। जेल की रहनवारी ने उन्हें और उग्र बना दिया था। वे बिरादरी वालों से कहा करते कि यह ऊंचा-नीचा, पंडित-शूद्र कुछ नहीं होता। सब साजिश है। सब इंसान एक बराबर हैं। सबको जीने खाने का हक है। किसी से दब कर रहने की जरूरत नहीं है, चाहे ठाकुर हो, चाहे बाभन। अपने इस विद्रोही स्वभाव के कारण काका हरदम ब्राह्मणों और ठाकुरों के निशाने पर रहते थे। यह गुस्सा उनमें अनायास नहीं आया था। इसकी वजह उनके तमाम भले-बुरे और बर्बरतापूर्ण अनुभव थे। 
काका की उम्र 13 तेरह साल की थी, तभी बाप मर गया। बाकी बची मां और छोटी बहन, जिसका नाम कोइला था। साढ़े तीन बीघे खेत था, जिसमें हांड़ तोड़ कर मां-बेटे कुछ न कुछ उगा ही लेते थे। बाकी कुछ मजूरी-धतूरी हो जाती और उसी के सहारे गृहस्थी की गाड़ी खिसकती थी। 
कोइला बेहद सीधी लड़की थी जो बहुत ही कम बोलती थी। वह स्वभाव से शर्मीली थी और घर से बाहर कम ही निकलती थी। मुस्कराती तो लगता जैसे बिजली कौंध गयी हो। उसका नाम भले कोइला भले रहा हो, पर उसकी संुदरता से गांव की सभी युवतियां जलती थीं। वे आपस में कहतीं- चमारिन भला इतनी सुंदर कैसे हो सकती है? पक्का किसी बांभन-ठाकुर की लड़की है, वरना इतनी सुंदर न होती। मजदूरी करती है तब भी दूध की तरह भभक्क उज्जर है। जाने क्या खाती है! गांव में जहां भी दो-चार लड़कों का झुंड इकट्ठा होता, कोइला की चर्चा जरूर हो जाती। 
काका और उसकी मां अक्सर घर से बाहर का कामकाज देखते और कोइला घर संभालती थी। वह खेतों में कभी-कभार ही जाया करती, जब बहुत जरूरी हो। काका कहता- इतनी सुंदर बहन है मेरी, खेत में काम करने के लिए? वह शरमाकर कहती- चलो हटो... हम नहीं हैं सुंदर-फुंदर....मस्का न मारो, कोई काम हो तो बोलो? इस तरह भाई-बहन में अक्सर एक बनावटी झगड़ा ठना रहता था।  
मां-बेटे मिलकर कोइला की शादी की तैयारी ही कर रहे थे कि आखिर उस पर लंपटों की नजर लग गयी। ठकुराने के कुछ लंपटों में होड़ लगी कि देखना है कोइला को कौन पटा पाता है? इसके बाद लड़कों ने खूब कूल्हा पीटा, तरह-तरह के उपक्रम किये मगर किसी की दाल नहीं गली। 
गांव से लगा एक बहुत बड़ा घना-सा बाग था। झाडि़यों की आड़ के कारण गांव की औरतें उसी में नित्यक्रिया के लिए जाया करती थीं। एक रोज दोपहर में कोइला उसी बाग में गयी हुई थी। अभी वह बैठी ही थी कि ठकुराने का एक लड़का अजय अचानक आकर सामने खड़ा हो गया। कोइला हड़बड़ाकर उठी और एक हाथ से सलवार का नारा पकड़ा और दूसरे हाथ में लोटा संभाल कर भागी। अजय ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया। कोइला ने आव देखा न ताव, हाथ का लोटा अजय के मुंह पर दे मारा। उसकी नाक से खून आ गया, चोट के कारण पकड़ ढीली पड़ गयी और कोइला हाथ छुड़ा कर घर भाग गयी।
यह घटना गांव के लड़कों में काफी चर्चित हुई। जिन लोगों में कोइला को पटाने की होड़ मची थी, उनमें से कइयों ने तो अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली। बोले- अबे यार! लौंडिया है या फूलन देवी? साली मार के मुंह तोड़ देगी, कौन पड़े उसके चक्कर में....। 
इस घटना पर गांव के लोग जितना मजा ले रहे थे, अजय उतना ही तिलमिला रहा था। आखिर उसने प्रण किया कि वह बदला लेकर रहेगा।
एक दिन काका खेत में निराई कर रहा था। मां ने कोइला को खाना लेकर भेजा। कोइला जब तक खेत में पहुंचती, काका दूसरे रास्ते से घर आ गया। कोइला उसे खेत में न पाकर वहीं बैठ गयी कि यहीं कहीं होगा और वह वहीं पेड़ के नीचे इंतजार करने लगी। इतने में अजय वहां आ पहुंचा। भरी दोपहरी थी। दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा था। अजय उसके साथ जबरदस्ती करने लगा। कोइला ने भरसक अपने को छुड़ाने-बचाने का प्रयास किया, लेकिन अंत में वह हार गयी। अजय जब तक वहां से हटा कि काका आ गया। कोइला बैठी सुबक रही थी। उसके चेहरे पर खरोंचें आ गयीं थी जिससे हल्का-हल्का खून रिस रहा था। कपड़े बुरी तरह क्षत-विक्षत हो गये थे। काका ने घबराहट में इधर-उधर देखा तो कुछ दूर पर अजय जाता हुआ दिखाई दिया। काका ने घबराकर पूछा क्या हुआ तो उसने सब कह दिया। काका जिस खुरपी से निराई कर रहा था, हाथ में ली और अजय के पीछे चल पड़ा। अजय ने उसे अपनी ओर आते हुए देखा पर वह बेपरवाह था। उसने सोचा आने दो क्या करेगा? अभी तक गांव में कोई ऐसी घटना सामने नहीं आयी थी कि ब्राहमणों-ठाकुरों पर कोई चमार कभी हाथ उठाये। जबकि, उनकी लड़कियों के साथ बलात्कार होना कोई नयी बात नहीं थी। ऐसा सुनने में कभी नहीं आया कि किसी लड़की का बलात्कार हुआ हो तो बलात्कारी को किसी तरह की कोई सजा मिले। सब गांव वाले मिलकर लीपापोती कर देते और बात खत्म हो जाती। 
काका तेज कदमों से अजय के पास पहुंचा और बिना कुछ कहे खुरपी से उसपर ताबड़तोड़ वार करने लगा। वह उसे तब तक मारता रहा जब तक वह थक नहीं गया। अजय का पूरा बदन छलनी हो गया। वह थोड़ी देर तक छटपटाता रहा और फिर दम तोड़ दिया। 
इस घटना पर पूरे गांव के सवर्णों को पहली बार अभूतपूर्व ढंग से एकजुट देखा गया, क्योंकि सबकी एक राय थी कि अभी ही इनको दबाया न गया तो ये आफत बन जायेंगे। काका को हत्या के जुर्म में दस साल की सजा काटनी पड़ी।  
ननका के मन में काका के प्रति सहानुभूति थी। वह अक्सर उनका खाना बना आती या बुला कर अपने घर खिला देती। उनका छोटा-मोटा काम कर देती। काका, ननका की बहुत इज्जत करते। कभी चिलम पी रहे हों  और ननका पहुंच जाये तो वे चिलम बुझा देते। उन्हें कोई काम पड़ता तो वे ननका को बुला लेते और वह जाकर मदद कर देती। काका अक्सर ननका से कहते- जुगनू बहुत नसीब वाला है जो तुम जैसी सुंदर और कामकाजी मेहरी पाया है। हमारा नसीब लिखने में तो मालिक ने कंजूसी कर दी। वह शरमा कर वहां से हट जाती। 
ननका के जीवन में जो भी परेशानियां थीं, उनकी जड़ केवल जुगनू था। अकेले उसका सहयोग न मिलने के कारण ननका को लगता कि जैसे वह कहीं घने जंगल में भटक रही है। जब तब वह घबरा उठती और झल्लाती, चारों ओर राह तलाशती, मगर करे तो क्या करे? यह बात उसे कचोटती रहती कि मरद कितना बेपरवाह होता है? अगर औरत भी ऐसी हो जाये तो? हमें चूल्हा भी फूंकना है, घर भी देखना है, पशुओं की देखरेख भी हमी को करनी है। मजदूरी करने भी जाना है। सांझ को लौट के आयें तो दिन भर का हिसाब भी देना है। क्या मर्द यह सब निबाह सकता है?  
ससुराल आने के बाद जल्दी ही वह मां बन गयी थी और फिर यह सिलसिला रुका नहीं। बारह साल के भीतर उसने नौ बच्चे जने। जैसे-जैसे बच्चों की संख्या बढ़ती गयी, उसकी जिंदगी कठिन से कठिनतर होती गयी। इतने सारे बच्चों को संभालना हिमालय सर पर उठाने से कुछ कम तो बिल्कुल नहीं। उधर, जुगनू बेपरवाह। वह कभी-कभार मजदूरी के सिवा कोई और काम नहीं करता। घर पर रहता तो बस पत्नी और बच्चों को आदेश देता रहता। किसी न किसी पर चिल्लाता रहता। इसलिए जब वह घर पर नहीं होता तो ननका ज्यादा सुकून महसूस करती। वह सोचती-जब सारे काम हमीं को करने हैं तो किसी की झिड़की क्यों? मरद जितने वक्त घर पर न रहे, जी को आराम ही रहता है। काम तो एक नहीं करना, पड़े-पड़े हुकुम चलाता रहता है।
जुगनू आठवें दिन भी घर नहीं आया। ननका जाने क्या-क्या सोच रही थी कि बडी़ लड़की माया आकर ननका से बोली- गांव के सब लोग चैधरी की बहन सरिता और बाबू के बारे में उल्टा सीधा कहते हैं। कहते हैं कि दोनों का कुछ चक्कर है इसीलिए बाबू घर नहीं आते। इतना सुनते ही ननका ने उसे खदेड़ लिया- भाग यहां से हरामजादी, जो कहता हो उसी से कह दो रखवाली करे। आलतू-फालतू बातें करेगी तो खींच लूंगी जबान। 
ननका ने बिटिया को खदेड़ तो लिया लेकिन उसके मन में शक पैदा हो गया। जाता तो है ही जुगनू चैधरी के यहां। आखिर कोई बात नहीं है तो फिर इस तरह वह गायब क्यों रहता है? कहां जाता है? क्या सचमुच वह.... ननका रो पड़ी। 
सरिता सुखराम चैधरी की बहन है जो कि विधवा है। शादी के कुछ ही महीने बाद उसका पति एक हादसे में मर गया तो सुखराम उसे अपने घर ले आया कि दूसरी शादी कर देंगे। मगर उसने दूसरी शादी करने से मना कर दिया। वह कहती- एक बार जो हो गया, हो गया। दूसरी शादी नहीं करेंगे। हरदम बुझी-बुझी सी रहती। बैठती तो बैठी रहती। सोती तो सोती रहती। घर के लोग उसे लेकर चिंतित रहते। जुगनू का बचपन से उसके यहां आना जाना था और सरिता से उसकी अच्छी जमती थी। वह उसे बहलाने की कोशिश करता। धीरे-धीरे देखने में आया कि जुगनू रहता है तो सरिता थोड़ा खुश रहती है। इसलिए वह उदास हो या खाना न खा रही हो तो घरवाले कोशिश करके उसे जुगनू के सुपुर्द कर देते और जुगनू उसे बहला देता। इस दौरान जुगनू और सरिता की नजदीकियां बढ़ती गयीं और उनके आपस में प्रेम संबंध हो गये। इस बीच चैधरी ने गांव से थोड़ा बाहर हटकर सरिता के रहने के लिए एक चैपाल बनवा दी। अब जुगनू को उससे मिलने में कोई असुविधा भी नहीं रही। 
अब तक जुगनू और सरिता को लेकर लोगों में कानाफूसी होने लगी थी। ननका इस अफवाह की पुष्टि के लिए पंडिताइन के पास गयी तो पंडिताइन पहले से ही जुगनू से खार खाये बैठी थीं, क्योंकि उन्हें सब मालूम था। बोलीं- जाकर थाने में रिपोर्ट लिखवा। वह चैधरी की बहन है न रांड़, फांस लिया है उसको। सारा दिन उसी के चक्कर मंे घूमता रहता है कुत्ता। उसी के साथ कहीं गायब है आठ दिन से। ननका के पैरों तले से तो जैसे जमीन खिसक गयी। वह फफक पड़ी। पंडिताइन ने खूब समझाया और अंततः ननका ने निश्चय किया कि अब कुछ करने की जरूरत है।
जुगनू नौंवे दिन घर लौटा। ननका ने उससे न कुछ कहा और न ही कुछ पूछा। सारा दिन उसने जुगनू से बात नहीं की। जुगनू ने जो भी पूछा या बोलने की कोशिश की तो उसने हां-हूं में जवाब दे कर टाल दिया। शाम को जुगनू ने फिर घर के बारे में हालचाल पूछा तो ननका उबल पड़ी- हमें तुम्हारी घर-गृहस्थी से कोई मतलब नहीं है। ये अपने बहत्तर अंडे-बच्चे सम्हालो और जहां मन करे जाओ जो मन करे करो। हमसे कुछ मत पूछो। बिना बताये गायब हो, इतना बड़ा परिवार है, कैसे चलेगा, इसके बारे में कभी सोचते हो? किसके दम पर घर छोड़ गायब हो गये थे? न रह पाते हो उनके बिना तो ले आओ। हम तुम्हारी लौंडी नहीं हैं कि गुलामी करें और तुम देश भर की रांड़ों के पीछे-पीछे फिरो....।
वह बड़बड़ाती जा रही थी कि जुगनू ने उसे टोका- अच्छा मुंह बंद रखो नहीं मुंह तोड़ देंगे। ननका और जोर चिल्लाने लगी। जुगनू ने इतना कुछ ननका के मुंह से कभी सुना नहीं था, न उसे इसकी आदत थी। उसने ननका की पिटाई कर दी, लेकिन ननका भी अब आरपार के मूड में आ चुकी थी। जुगनू के प्रति उसके मन में कोई लिहाज नहीं रह गया था जिसे वह रख छोड़ती। उसने जी भर गालियां दीं। वह जितनी गालियां देती जुगनू उसे और पीटता, ननका और गालियां देती। पूरे मोहल्ले के लोग जुट गये। पंडिताइन भी आ गयीं। उन्होंने बगल में पड़ा एक डंडा उठाया और जोर से गरियाते हुए जुगनू की पीठ पर दे मारा। जुगनू वहां से हट गया। 
मारपीट का यह सिलसिला अब रुकने वाला नहीं था। जुगनू यदि काम पर नहीं जाता तो सरिता के यहां जरूर जाता। इस पर ननका टोका-टाकी करती और फिर झगड़ा होता। झगड़े में और होना क्या था? जुगनू उसे बेतहाशा पीट देता। इस पर ननका चीखती-चिल्लाती। जुगनू और पीटता। ननका और चिल्लाती। मुहल्ले के लोग इकट्ठा होकर तमाशा देखते। फिर कोई आकर छुड़ा देता और झगड़ा शांत हो जाता। लोग जुगनू को समझाते भी कि अब इस उम्र में यह क्या कर रहे हो? नौ बच्चों की मां है वह। उसे मारने पीटने में तुम्हें शर्म नहीं आती? लेकिन जुगनू पर किसी के कुछ कहने सुनने का जैसे कोई फर्क ही न पड़ता हो। 
इस सब के बीच घर की हालत बिगड़ने लगी। जुगनू काम पर अक्सर नहीं जाने लगा। ननका अनमनी सी रहने लगी। घर में खाने पीने की किल्लत शुरू हो गयी। ये सारी मुसीबतें भी ननका के सिर आयीं, क्योंकि बच्चों को भूख लगती तो वे ननका के पास आते। किसी की तबीयत खराब है, किसी का कपड़ा फटा है, किसी के पास जांघिया नहीं है, किसी को गोलियां और चूरन चाहिए, ननका परेशान हो उठती। अब उसमें शायद इतनी ताकत नहीं बची थी कि बच्चों समझा ले जाये। 
बड़ी लड़की माया अब चैदह साल की हो गयी थी। उसके बाद दो लड़के और फिर एक लड़की, ये चार बच्चे ऐसे थे जो अब मजदूरी के लिए भेजे जा सकते थे। ननका ने उन्हें काम पर भेजना शुरू किया, लेकिन बिना सीजन के मजदूरी भी कहां मिलती है? छिटपुट काम मिला तो मिला। ननका के लिए घर चलाना अब ऐसे हो गया जैसे चींटी के लिए पहाड़ उठाना। 
ननका की यह सब समस्या काका देखा करता था। वह जुगनू पर भीतर ही भीतर कुढ़ता रहता। बीच-बीच में वह ननका की कुछ मदद करने की भी कोशिश करता, लेकिन ननका मना कर देती। बाल-बच्चे जिसके हैं जब उसे कोई मतलब नहीं है तो दूसरे को तकलीफ क्यों दें? 
एक रोज सबसे छोटे लड़के को तेज बुखार हो आया। शाम को जुगनू घर तो आया लेकिन उसने बच्चे की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। ननका ने माया से कहलवाया कि मुन्ने को बुखार है, तो जुगनू बात टाल कर चला गया। 
लड़का चारपाई पर पेट के बल लेटा उल्टी कर रहा था। उसके पास कोई नहीं था। काका ने अपने घर से ही देखा तो आकर उसे पानी दिया और ननका को आवाज दी। वह आयी तो उसे डांटने के लहजे में बोला- क्यों नहीं इसकी दवा करातीं? मर रहा है वह तुम्हें फुरसत नहीं है? 
-फुरसत है तो क्या करूं? कहां से करूं? घर में एक पैसा नहीं है। लड़का बीमार है, देखा है फिर भी जाने कहां चले गये। मरने दो, हम क्या करें। काका ने बच्चे को अपने साथ साइकिल पर लादा और डाॅक्टर के यहां ले गये। 
ननका का डाॅक्टर के यहां, बनिये के यहां, सब जगह कई महीने से खाता चल रहा था और हजार-पांच सौ सबका उधार था। जुगनू से उसकी बातचीत एकदम बंद थी। ऐसे में तमाम संकोच के बावजूद वह काका से अक्सर पैसे की मदद लेने लगी। काका को भी यह अच्छा ही लगता था, क्योंकि ननका भी उसके लिए बहुत करती थी। उधर, पंडिताइन भी उसे जब-तब अनाज वगैरह दे दिया करतीं, लेकिन नौ बच्चों को किसी के रहमो-करम पर कैसे पाला जा सकता है?
एक दिन काका की तबीयत खराब थी। उन्होंने ननका को बुलाया कि कुछ खाने का इंतजाम कर दे। ननका ने काढ़ा बना कर उसे पीने को दिया और खाना बनाने लगी। काका वहीं चैखट पर बैठा चाय पी रहे थे। ननका खाना बना रही थी और दोनों बातें भी कर रहे थे। काका ने कहा- आज कल तुम बहुत कमजोर हो गयी हो।
- कौन सा सुख के दिन काट रही हूं कि मोटापा आएगा? 
- वह तो छिछोरा निकल गया। अब उसकी करतूतों पर मत जाओ। तुम्हारा घर है, बच्चे हैं, हिम्मत से काम लो। जो जरूरत हो, बताया करो। किसी बात का कोई संकोच मत किया करो। मेरे कोई नहीं है। तुम्हीं सब हो, जिससे कभी-कभी सहारा मांग लेता हूं। यह कर्ज इसी जनम में उतर जाये तो अच्छा है.... कहते-कहते काका भावुक हो गये और आंखों के कोर गमछे से पोंछ लिये। ननका को ऐसी संवेदना की दरकार जाने कबसे थी। काका को रोते देख उसे भीतर-भीतर दुख में सनी हुई अजीब सी खुशी हुई। ननका भी रो पड़ी। मन हुआ जाकर काका से लिपट रहे। उदासी भरी आवाज से बोली- मेरा मन बहुत घबराता है काका। अब जी चाहता है अपने आप को खतम कर लूं। वह जोर से फफक पड़ी। काका उठ कर उसके पास आ गये। वह चूल्हे के आगे ही उठकर खड़ी हो गयी। काका ने उसके सर पर अपना हाथ फिराते हुए कहा- जब तक मैं हूं तब तक यह कतई न करना। मैं तुम्हें इस तरह कायरता से मरने नहीं दूंगा। जब तक चला सकती हो चलाओ, जब न चल पाये तो बताना। मुझ पर भरोसा रखो। ननका खाना तैयार करके चली गयी। 
एक दिन ननका बहुत उदास थी। वह जुगनू के बारे में सोचती रही और अचानक लगा कि कलेजा फट पड़ेगा- वह ऐसा निष्ठुर हो गया? मेरा न सही, अपने पैदा किये नौ बच्चों का तो ख्याल किया होता! वह खूब जी भर रोई फिर उठकर चल दी पंडिताइन के पास कि कुछ जी हाल कहेगी उनसे, और अगर मन-मुंह देखा तो थोड़ा सा अनाज मांग लेगी। आज घर में बनाने को एक दाना नहीं है। 
वह पंडिताइन के दरवाजे पर पहुंची तो देखा कि घर की दालान से कपड़े ठीक करती-घबराई हुई माया निकल रही है, उसके पीछे रमाशंकर। उसके तो जैसे प्राण ही सूख गये- तो क्या मेरी बच्ची आ गयी इस शैतान के चंगुल में? उसने ननका से पूछा- कहां थीं? वह कांप रही थी। चुपचाप मां को देखती रही, मगर बोली कुछ नहीं। ननका ने फिर पूछा- क्या कर रही थीं दालान में? वह फिर कुछ नहीं बोली। रमाशंकर ने ननका को देखा तो दूसरी ओर चला गया। उसने माया का बाल पकड़ा और घसीटते हुए घर तक लायी और ताबड़तोड़ उसकी पिटाई करने लगी- कुतिया....रामजादी अब यह दिन भी दिखाएगी तू? जबसे इस घर में आयी हूं, तब से वह सुअर की औलाद मेरे पीछे पड़ा था। मुझको छू भी न सका लेकिन तू.... भेडि़ए हैं ये सब। नोच कर खा जाएंगे तुझे....। 
ननका ने उसे बिस्तर पर धकेल दिया और दूसरी कोठरी में जा कर खूब फूट-फूट कर रोयी।
इतनी असहाय वह कभी नहीं थी। आज यह पहली बार है जब उसने पंडिताइन के पास जाकर अपनी व्यथा नहीं कही। क्या पंडिताइन यह स्वीकार कर पाएंगी कि उनके लड़के ने ही उसे लूट लिया? क्या जुगनू इस बारे में सुनेगा तो अपनी बच्ची की लुटती अस्मत के बारे व्यथित होगा? वह तो खुद अपनी बीवी बच्चों को छोड़ कर रंगरलियां मना रहा है? ननका अब क्या करे, कहां जाये? 
इतने में छोटी लड़की आकर पूछने लगी- अम्मा खाना क्या बनेगा?
वह पंडिताइन के यहां इसीलिए तो जा रही थी। आजघर में खाने को कुछ नहीं है। वह गुस्से में चीखी- कुछ नहीं बनेगा। जहर खा लो और मर जाओ सब के सब...हट जाओ यहां से३ण्बिटिया ने रुआंसी हो कर ननका की ओर देखा और चुपचाप चली गयी। उसे जाते देख ननका को लगा कि उसका कलेजा दो टुकड़े हो जाएगा। क्या अब यह दिन आ गया है कि वह अपने बच्चों को भूख से तड़पता हुआ देखेगी? 
नहीं...मैं यह नहीं देख सकती....मैं......।
वह उठी और पीछे के दरवाजे से निकलकर लंगड़ा ताल की ओर चल दी। यह गांव के बाहर बहुत ही गहरा ताल है। बताया जाता है कि उसमे लगभग हर साल एक न एक आदमी किसी बहाने डूब जाता है। दरवाजा खुला तो काका को भनक लग गयी। ननका माया को पकड़कर ला रही थी तो काका ने देखा था। वह सारा माजरा समझ गया था। ननका बेतहाशा चली जा रही थी। वह तालाब के करीब पहुंचकर जरा देर के लिए ठिठकी और मुड़कर पीछे देखा तो काका खड़े थे। 
अरे यह क्या? अपनी मर्जी से मौत भी नहीं मिलेगी? उसने हड़बड़ी में तालाब की ओर छलांग लगा दी। लेकिन काका ने झपटकर उसे पकड़ा और बाल हाथ में आ गया। वह ताल के कगार पर ही गिर गयी। झटके से उठकर खड़ी हुई और चिल्लायी- छोड़ दो मुझे....छोड़ दो काका.....छोडो मुझे....काका.......
काका ने उसे ताल की कगार से खींच कर दूर जमीन पर पटक दिया- पागल हो गयी हो? तुम्हारे बाल-बच्चे हैं। क्या होगा उनका? 
-जहन्नुम में जायें बाल-बच्चे.....जहन्नुम़ में जाये मरद.... हमें अब किसी की जरूरत नहीं है। हमसे अब और सहा नहीं जाता। 
काका ने जोर से  से डांटा- मैंनें कहा था न कि जब तक मैं हूं, तुम्हें मरने नहीं दूंगा। दुनिया में ऐसी भी कोई परेशानी नहीं जिसका कोई समाधान न हो। चलो, वापस चलो। 
- मैं नहीं जाऊंगी अब।
- चलो३ण् तुम्हें घर चलना होगा।  
- मैं सिर्फ एक शर्त पर चल सकती हूं। 
- क्या? 
- अब मैं उस घर में नहीं जाऊंगी। वहां अपने बच्चों को एक-एक दाना अन्न के लिए तरसते देखने और घुट़-घुट कर मरने के अलावा के कुछ नहीं है। मैं जिसके लिए उस घर में गयी थी, वह मेरा नहीं रहा। अब वहां मेरा कोई सहारा नहीं। मेरी फूल-सी बच्चियों को ये गांव वाले मेरी ही आंखों के सामने नोच-नोच खाएंगे और मैं कुछ कह भी नहीं पाऊंगी, जैसे आज कुछ नहीं कह पायी। आज बड़ी लड़की है कल छोटी का भी यही होगा। अगर मेरा मरद खुद छिछोरा न होता, तो यह सब कभी न होता? मैं कुछ बोलूं तो किसके दम पर बोलूं? मैं उस हरामी का मुंह नोच लेती, लेकिन किसके बल पर करूं? मैं कितनी असहाय हूं?
- तुम असहाय नहीं हो, चलो घर। मैं अभी उसका हिसाब किये देता हूं। मैं इतना कर सकता हूं कि आज से तुम्हारी बच्चियों को छूने की कोई हिम्मत न कर पाये। तुम चलो घर, मैं उसे सबक सिखाता हूं। आज के बाद इस गांव में कोई तुम्हारी ओर आंख उठाकर नहीं देखेगा। 
- फिर से जेल जाओगे? नहीं, यह नहीं होगा। अपनी परेशानी की सजा तुम्हें नहीं दे सकती। और फिर इन पाखंडियों के बीच क्या करुंगी जाकर, जो अपनी ही बच्चयों तक का बलात्कार कर सकते हैं? जो अपने नौ बच्चों सहित अपनी पत्नी को छोड़ सकता है किसी के लिए, क्या करूंगी उसके पास जाकर, मैं अब उसका मुंह नहीं देखना चाहती। इन गांव वालों का भी नहीं।  
- चलो मेरे साथ। आज के बाद जिसने तुम्हारी ओर बुरी निगाह की, उसे मैं कच्चा ही चबा जाऊंगा। हम पर भरोसा करो३चलो वापस३। 
- तुम गांव वालों से लड़ सकते हो, लेकिन मैं तो अपने से हारी हूं। उसका क्या करूं? वह मेरा मरद है, उसके लिए तो नहीं कह सकती कि उसे भी चबा जाओ। वह अपना नहीं रहा, फिर भी अपना है। उसके लिए मौत नहीं मांग सकती, पर त्याग तो सकती हूं। 
- तो क्या करोगी?
- जो भी करूंगी, अब इस गांव में नहीं रहूंगी। या तो मरूंगी या कहीं और जाऊंगी। 
- इतनी अधीर क्यों होती हो, मैं तुम्हारे साथ हूं। 
- मगर यहां नहीं, मैं घर तो क्या, यह गांव भी छोड़ रही हूं। अगर तुम्हें मेरी फिक्र है तो चलो मेरे साथ। 
- और बच्चे। 
- मैं नहीं जानती। जिसके हैं वो पाले या छोड़ दे गांव वालों को नोच कर खाने के लिए। 
- इसमें बच्चों की कोई गलती नहीं है। उन्हें साथ ले लो। 
- इतनी बड़ी फौज कहां लेकर जाऊंगी। 
- जहां हम रहेंगे, वहीं वे भी रहेंगे। 
- फूटी कौड़ी नहीं है पास। नौ-नौ बच्चों को किसका मांस खिलाएंगे? छोड़ो और चलो। मुझे अब किसी का कोई मोह नहीं है। 
ननका कहते-कहते वह बुरी तरह फफक पड़ी। काका ने ननका का हाथ पकड़ा और गांव सड़क की ओर चलते हुए कहा- चलो, रहने का कोई ठिकाना बना लेंगे, फिर आकर बच्चों को ले जाएंगे। 
ननका ने फटी आंखों से आंखों से काका की ओर देखा और काका से लिपट गयी। काका ने उसे परे हटाते हुए कहा- गांव पास ही है, कोई देखेगा। चलो यहां से।
दोनों सड़क पर पहुंचे तो काका ने कहा- तुम यहां रुको। मैं घर से होकर आता हूं। कुछ पैसे हैं, वह ले आऊं तो कुछ दिन खर्च चल जाएगा। 
काका घर आये और अपने पास पड़े हुए रुपये लिये। कुछ सामान बांधकर तैयार किया। माया को बुलाया और उसे सारी बातें बतायीं फिर समझाते हुए बोले- मेरे घर की चाबी ले लो। वहां जितना भी अनाज है, उठा ले जाओ। करीब पंद्रह दिन तक चल जाएगा। भाई बहनों को सम्हालना और घर से बाहर कहीं मत जाना। तुम्हारे एक गलत कदम से तुम्हारी मां मरना चाहती है। बोलो, क्या यह ठीक है? 
माया फूट-फूट कर रोने लगी- मां से कह दो हमें माफ कर दें। हमसे गलती हो गयी। मैं अपनी मरजी से नहीं गयी थी। उसने हमसे कहा था कि पंडिताइन बुला रही हैं। हम गये तो मुझे दालान में खींच लिया और जबरदस्ती की। 
काका उसे समझाते हुए बोले- जो हुआ उसे भूल जाओ, लेकिन अब कोई भी ऐसा काम तुम्हें नहीं करना है जो तुम्हारी मां को पसंद न हो। 
उसने हां में सर हिलाया। काका ने उससे यह आश्वासन लिया कि उनके लौटने तक वह सभी बच्चों को सम्हालेगी और दरवाजा बंद कर उसे चाबी देकर चले गये। 
शाम हुई। जुगनू घर लौटा तो सरिता उसके साथ थी। माया खाना पका रही थी। जुगनू ने दबी-सी आवाज में पूछा- तुम्हारी अम्मा कहां हैं? 
उसने न में सिर हिलातें हुए कहा- पता नहीं और आंखों में भर आये आंसुओं को चूल्हे के धुएं में छुपा लिया। जुगनू ने घर के अंदर बाहर सभी जगह ननका को ढूंढा, वह कहीं नहीं मिली। अगले दिन भी नहीं। काफी छानबीन हुई और उसके निष्कर्ष निकाला गया कि काका भी नहीं दिख रहे और ननका भी। दोनों कहीं भाग गये। गांव के एक बुजुर्ग ने इसकी पुष्टि की कि वह खेत में घास छील रहे थे तभी ननका को काका के साथ सड़क की ओर जाते देखा था। 
गांव भर में हल्ला मच गया- ननका-काका के साथ भाग गयी.... बताओ३नौ बच्चों की मां थी, उसको बुढ़ापे में में ही यह सब करना था? छिः छिः.... हे भगवान! दो के दोनों मरद-मेहरी एक जैसे ठहरे..... अरे जब मरद ही शोहदा ठहरा तो मेहरी भी वैसी ही हो गयी और अब बच्चे.... 
माया अब घर से नहीं निकलती और हमेशा सोचा करती है कि वह दिन कब आएगा जब काका हम सब को लेने आएंगे। वह रोज ही छुप-छुप कर रोती है और यह बात किसी से नहीं कहती। 
एक दिन वह पीछे के दरवाजे पर उदास खड़ी थी तो देखा दूर खेतों की तरफ से काका चले आ रहे थे।
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(दोस्‍तों यह कहानी पक्षधर पत्रिका में छप चुकी है। इसे अनिता भारती और बजरंग बिहारी तिवारी द्वार संकलित एक कहानी संग्रह में भी शामिल किया गया है।)

Thursday, July 26, 2012

पुनर्जन्म


मांडवी से बात करते-करते फोन कट गया तो कैलाश को अपनी बहन की याद आयी। मोबाइल उंगलियों में फंसा कर गोल-गोल घुमाते हुए वह सोच रहा था कि उसकी बहन ने यह बात इतने विश्वास से कैसे कही थी कि बिना स्त्री के कभी एक भी कदम चल नहीं सकोगे, जबकि उस समय वह काफी छोटी थी? वैसे भी उम्र में वह कैलाश से काफी छोटी है। उस छोटी सी बच्ची को यह सब किसने बताया होगा? क्या उसके होने ने? या फिर मां ने? क्या छोटी सी उम्र में ही उसने स्त्री और पुरुष का मतलब समझ लिया था? मां अक्सर उससे चुपके-चुपके बातें किया करती थीं। इस बीच कोई पहुंच जाता तो दोनों चुप हो जाती थीं या बात बदल देती थीं। तो क्या मां ने तमाम ऐसी बातें उसे बतायी होंगी, जो कैलाश को कभी नहीं बतायी गयीं?
मांडवी से बात करते-करते उसके मोबाइल का बैलेंस खत्म हो गया था। इस पर उसने सोचा कि मोबाइल की ध्वनि तरंगों की ही तरह यदि मन की तरंगों को डीकोड करके संदेशों का आदान-प्रदान किया जा सकता तो कितना अच्छा होता! फिर दूर बैठे किसी व्यक्ति से बात करने के लिए आदमी को मशीनों का मोहताज नहीं होना पड़ता। प्रकृति ने मनुष्य की तरह ऐसी रचनात्मक बात क्यों नहीं सोची? निश्चित ही उसने मानव की रचना करते समय आज की जरूरतों को ध्यान में नहीं रखा होगा, वरना उसका एक छोटा सा अविष्कार मनुष्य को कुछ हद तक मशीनों से मुक्ति दे सकता था।

साथ ही उसके जी में यह भी आ रहा था कि वह मांडवी से पूछे कि अचानक वह उसके लिए इतनी जरूरी क्यों हो गयी है? अचानक सब कुछ इतना रहस्यमय और रोमांचकारी कैसे हो गया? वह एक खूबसूरत-सा सैलाब लेकर आयी और वह उसी में बह चला। उसका अपना कुछ भी अब उसका नहीं रह गया।
कैलाश ने फिर से उसका नंबर डायल किया और ‘ये काल करने के लिए आपका बैलेंस काफी नहीं है’ सुनकर मोबाइल बिस्तर पर फेंक दिया। उसे झल्लाहट हुई कि प्रकट-रूप प्रेम में पैसा इतनी बड़ी भूमिका अदा कर रहा है! लेकिन वह फिर मांडवी और अपनी बहन के बारे में सोचने लगा। उसकी बहन अठारह वसंत देख चुकी है। अब वह घर से कम ही निकलती है। घर की लड़कियां बड़ी होकर लड़कियां नहीं, बल्कि, घर की इज्जत हो जाती हैं और उनका घर से बाहर निकलना मतलब इज्जत का चला जाना है। उसके भी घर वालों का मानना है कि अब वह बड़ी हो गयी है।
आज कैलाश मांडवी के प्रति अपने दिल में उठ रही टीस को अपनी बहन की निगाहों से तौल रहा है-वह मुझसे छोटी है, अनपढ़ है, लेकिन उसके तजुर्बे कितने बड़े हैं? उसने जो कहा था, आज कितना सच लग रहा है! मांडवी के बिना वह वास्तव में एक भी कदम नहीं चलना चाहता।
उसके दिमाग में एक और बात बार-बार सर मार रही है कि क्या उसकी बहन भी किसी से प्रेम करती होगी? क्या जिस तरह मांडवी से आगे मैं कुछ और नहीं सोचना चाहता, इसी तरह उसने भी किसी की दुनिया बसा दी होगी? आज से कुछ साल पहले कैलाश यह बात बिलकुल नहीं सोच सकता था, क्योंकि उसके दिमाग़ में भी स्वाभाविक रूप से एक ग्रंथि मौजूद थी जो लड़कियों को घर की इज्जत के सिवा कुछ नहीं समझती। उस सोच के मुताबिक, प्यार करना तो किसी तीसरे ग्रह की बात है, परंतु आज जब वह खुद प्रेम में है, उसे यह सोच कर बुरा नहीं लग रहा कि क्या उसकी बहन भी किसी से प्रेम करती होगी।
आज कैलाश का मन कर रहा है कि वह अपने इस प्रेम की सूचना अपनी बहन को दे। उससे मन की ढेर सारी बातें करे। उससे बताये कि अब वह एक लड़की से प्रेम करने लगा है।
उसने उठकर कमरे की खिड़की खोल दी और हवा का एक झोंका अंदर आ गया, जिससे उसको महसूस हुआ कि अभी इस दुनिया में बहुत सारी ताजी सांसें बाकी हैं और आदमी को फिलहाल मरने के बारे में या इस दुनिया से बाहर की बातें नहीं सोचनी चाहिए।
उसने फिर एक बार बहन को याद किया- वह क्या कर रही होगी? क्या वह भी मेरी तरह सपनों के शून्य मे गोते लगा रही होगी? या फिर फांसी लगाने या कहीं भाग जाने के बारे में सोच रही होगी? क्या मेरी तरह वह भी प्रेम कर सकने के लिए आजाद हो सकती है? और मांडवी, वह भी तो अपने चारों ओर तमाम दीवारें लेकर मिलने आती है और सहमी-सहमी सी रहती है कि कहीं कोई देख न ले!
पांच साल पहले तक कैलाश अपने गांव में था। उसके मां- बाप, भाई-बहन सब साथ थे। पिता जी के पास जीवन के जितने अनुभव थे, वे सब महिलाओं के ईर्द-गिर्द के कड़वे अनुभव थे। उनके सामने महिलाओं का कहीं कोई जि़क्र आता तो वे अक्सर ही तल्ख़ हो जाते। महिलाओं के बारे में उनका तकिया कलाम था- ‘‘मेहरारू जाति ही कुतिया होती है।’’ महिलाओं के बारे में इसी तरह के भांति-भांति के ‘मौलिक’ जुमले सुनते-सुनते  कैलाश बड़ा हुआ था, सो महिलाओं के बारे में उसकी भी धारणा कुछ इसी तरह बन गयी थी। अब उसकी भी जब किसी स्त्री से कहा सुनी होती या कोई इस तरह की कोई बात होती तो वह भी उसी तरह की भाषा इस्तेमाल करता। मसलन, स्त्री ऐसी होती है, स्त्री वैसी होती है। मज़ेदार बात तो यह कि पूरे गांव तो क्या, पूरे आस पास के समाज में स्त्रियों के बारे में सम्मानजनक ढंग से सोचना मना था। स्त्रियों के प्रति नरम रुख़ रखने वाला मर्द ‘मर्द’ नहीं, ‘मेहरा’ है। स्त्रैण है। इस लिहाज से गांव के कई मर्द ‘मेहररुआ’ घोषित हो चुके थे। उन्हें मर्दों की सूची से बेदख़ल किया जा चुका था। ये वे लोग थे जो अपनी घरवालियों के छोटे-मोटे कामों में हाथ बंटा दिया करते थे। ऐसे समाज में रहने वाला व्यक्ति आखि़र इन संस्कारों से अछूता कैसे रह सकता है?
एक दिन कैलाश का बहन से झगड़ा हो गया। यह तब की बात है जब कैलाश अठारह की उम्र पार कर चुका था। तू-तू मैं-मैं होते होते कैलाश ने उसका बाल पकड़ कर झुका दिया और पीठ पर एक मुक्का दे मारा। छोड़ते ही बहन ने पास में पड़ी झाड़ू उठायी और कैलाश को दनादन कई झाड़ू रसीद कर दिया। इस पर कैलाश बोला- देखो तो झाड़ू कैसे झाड़ू से मार रही है। दोष होता है कि नहीं? तभी कहते हैं कि बिटिया जाति ही कुतिया होती है। बहन तिलमिला उठी। ठीक वैसे, जैसे यह जुमला उसके बाप के मुंह से सुन कर उसकी मां तिलमिला उठती थी। वह बोली- तुम तो कुत्ते नहीं हो न? बड़े अच्छे हो, लेकिन कुतियों के बिना चलेगा नहीं एक सेकेंड। अभी अभी थाली भर के पेल के आये हो, वह किसका बनाया था? कोई काम पड़ता है, तो झट से किसी कुतिया को ही बुलाते हो। देखना, अब यह बात याद रखना। अगर मेहरारू कुतिया होती है तो बियाह मत करना। वह भी तो कुतिया ही होगी? पैदा भी तो हुए हो, कुतिया की ही कोख से। बड़ा अकलमंद बनता है कमीना...!
वह बड़बड़ाती रही और कैलाश चुपचाप घर से निकल गया। यह पहली बार था जब वह बहन को ऐसे बोलने दे रहा था। वह देर तक बड़बड़ाती रही। कैलाश बाहर खड़ा हो गया। तब तक मां दरवाजे तक आयी, कैलाश ने पलटकर मां को देखा। मां ने घूर कर कैलाश को देखा और अंदर चली गयी। कैलाश की आंखें भर आयीं। जी में आया अंदर जाये और बहन से माफी मांग ले। पर यह उसके पुरुषत्व के खिलाफ लगा। वह माफी मांगने तो नहीं गया पर यह बात उसे कई रोज तक सालती रही। शाम को जब बहन खाना खाने के लिए बुलाने आयी तो मन ही मन अपराधबोध हुआ। जी में आया कि उससे माफी मांग ले। उसने ऐसा किया तो नहीं, पर खाना खाते हुए वह शर्म से गड़ा जा रहा था। यही बात सुबह बहन ने जता दी थी कि बिना कुतियों के नहीं चलेगा एक सेकेंड।
खैर, दिन बीता और बात आयी गयी हो गयी। भाई बहन में अक्सर झगड़ा होता रहता था। लेकिन वह एक बात जैसे उसके दिमाग की तंत्रिकाओं में अंकित हो गयी थी। हमेशा की तरह आज फिर उसने सोचा कि इस बार जब भी मिलेगा तो बहन से उस बात के लिए माफी मांग लेगा।
मांडवी से उसका मिलना खुद से मिलने जैसा था। आत्मसाक्षात्कार। यह वही स्त्री तो है जो पुरुष को तिल-तिल कर गढ़ती है! पुरुष के भीतर के विध्वंसकारी तूफान में स्थिरता और शांति भरती है। उस तूफान को अपने में जज्ब करती है। वह उसकी जड़ता में गति भरती है। अपनी सर्जना-शक्ति से उसके द्वारा किये गये विध्वंस की भरपाई करती है। पुरुष फिर भी उसे दरकिनार क्यों करता है?
शुरू में दोनों के बीच कोई खास बातचीत नहीं होती थी, मगर उनके बीच एक मौन संवाद शुरू हो गया था जो कभी नहीं टूटा। लहर और हवा के बीच की तारतम्यता की तरह दोनों के बीच एक महीन धागा था, जिससे दोनों के सिरे जुड़ गये थे। वे उसी सहारे चलते जा रहे थे और चलते जा रहे थे।
एक दिन दोनों अकेले में मिल गये। दोनों को परिचय की औपचारिकता निभाने की जरूरत नहीं थी। एक ने हाथ बढ़ाया और दूसरे ने हौसले से थाम लिया। उनके रास्ते पहले से तय थे। उन्हें एक साथ चलना था। वे दोनों मुक्तिकामी थे और जैसे एक दूसरे को ही तलाश रहे थे। उन्हें कोई करार नहीं करना पड़ा। कोई प्रदर्शन नहीं करना पड़ा। उन्हें कसमें नहीं खानी पड़ीं। उन्हें एक दूसरे के बारे में जो जानना था, वह उनकी जबीनों पर लिखा था। वह उन्होंने पढ़कर जान लिया। जो कुछ कहना था, आंखों ने कह दिया। एक दूसरे को लेकर जिज्ञासाओं का ज्वार उठता तो आखों से टकराकर शांत हो जाता। वे दोनों आगे बढ़ते रहे। वे अपना प्रारब्ध पहले से जानते थे, जैसे पहले से ही सब तय था कि उन्हें क्या करना है। सब कुछ ऐसे घट रहा था, जैसे पूर्वनियोजित था। जैसे वे पहली से लिखी पटकथा का अनुसरण कर रहे थे।
कैलाश को यह सब बहुत अजीब लगता। वह हैरान था। उसे सबसे बड़ा आश्चर्य इस बात का था कि वह जब भी मांडवी से मिलता या उससे बातें करता तो उसे अपनी मां की याद आती। जब भी वह मांडवी के साथ अपने प्यार में पड़ने की बातें सोचता तो उसे अपनी बहन की याद आती। अनेक बार वह मांडवी में अपनी मां की छवि देख रहा होता और यह उसे बेहद सुखद लगता। उसे अपने भीतर आये इस परिवर्तन और इस अनूभूति पर बेहद आश्चर्य होता। उसके सामने स्त्री का एक ऐसा रूप प्रकट हुआ था जिससे वह निरा अपरिचित था। अब उसने जाना कि जिस लड़की को वह अब तक सिर्फ एक लड़की से ज्यादा कुछ नहीं समझता था, वह अनगिनत भूमिकाओं में लीन एक मानव है। अब उसे लगने लगा कि अगर उसके जीवन से मांडवी को हटा दिया जाय तब तो वह सिर्फ एक बेजान सा पुतला बचेगा! पुरुष के जीवन में स्त्री की इतनी बड़ी भूमिका! पुरुष तो स्त्री के बगैर अधूरा है?
कैलाश की अनुभूतियां उसे किसी तीसरे जहान में खींच रहीं थीं, जहां वह एक सुंदर बंधन में बंधकर स्वतंत्र हो जाना चाहता था। उसकी अवस्था उस छोटे बच्चे सी हो गयी थी जो बहुत देर से अपनी मां को ढूंढ रहा था और मां मिली तो उछलकर उससे जा लिपटा।
उनके बीच दीवारें ढहने लगीं, वर्जनाएं टूटने लगीं। एक सुखद अनुभूति का समंदर उछाल मारने लगा। कलियां चटकने लगीं। खुुशबुएं उड़ीं और उछल कर हवा पर सवार हो गयीं। अब पूरी कायनात में उनके लिए जैसे कोई अवरोध नहीं रह गया। जमीन से आसमान तक तमाम रास्ते खुल गये। वे दोनों जो भी राह चुनते, वह आगे जाकर एक हो जाती। दोनों अपनी हर राह पर एक-दूसरे को पाकर स्तंभित रह जाते। अब वे अक्सर मिलने लगे। अब वे दोनों अपने दिन रात आपस मंे बांट कर जीने लगे।
एक दिन कैलाश बहुत व्याकुल था। उसने मांडवी को मिलने को बुलाया। शहर से बाहर एक सुनसान पार्क में मिलना तय हुआ।
शाम को पांच बज रहे थे। यह अगस्त का महीना था। बारिश होकर निकल गयी थीं। हवाएं भीग कर सिमट गयी थीं और हल्की-हल्की सिहरन के साथ फिजा में तैर रही थीं। मौसम खुशनुमा था और कैलाश परेशान। उसके भीतर की बेचैनी उसकी आंखों में पढ़ी जा सकती थी। वह कुछ कह नहीं रहा था और मांडवी उसके बोलने का इंतजार कर रही थी। दोनों संकोच के पर्वत ओढ़े एक बेंच पर बैठे थे। काफी देर बाद दूर क्षितिज की ओर देखते हुए कैलाश बोला- कितना कोलाहल है?
मांडवी मुस्करायी- कहां?
- पूरे वातावरण में।
- ऐसा तुम्हें लग रहा है। मौसम तो काफी अच्छा है। चिढि़यों की चहचहाहट कितनी लग रही है।
- पर मुझे ऐसा लग रहा है।
- किसी के भीतर का मौसम जरूरी नहीं कि बाहर के मौसम से मेल खाये ही।
- मतलब...?
- बुद्धू कहीं के....।
 कैलाश ने गौर से उसकी ओर देखा, दोनों की आंखें टकराकर झुक गईं। मांडवी को कैलाश की आंखों में छोटे बच्चे-सी अत्यंत आकर्षक लगने वाली एक निश्छलता दिखी। उसे अजीब सी अनुभूति हुई और उसकी आंखें भर आयीं। उसने मुंह दूसरी ओर घुमा लिया और काफी देर सन्नाटा गूंजता रहा। अचानक उसने कैलाश की ओर मुंह घुमाया तो देखा कि कैलाश उसकी ओर बड़े गौर से उसे देख रहा है। उसके भीतर की बेचैनी उसकी आंखों में झलक रही है। मांडवी ने बेंच पर टिके कैलाश के हाथ पर धीरे से अपना हाथ रख दिया और बोली- परेशान क्यों  हो?

कैलाश मौन रहा। चारों ओर सन्नाटा था। कहीं से कोई आवाज नहीं आ रही थी। कहीं कोई पत्ता नहीं खड़क रहा था। एक संयोग का सुर गूंज रहा था, जिसमें दोनों चुपचाप डूब रहे थे, उतरा रहे थे। कुछ देर बाद कैलाश अचानक सिहर उठा। मांडवी ने पूछा- क्या हुआ?
- मुझे अजीब लग रहा है। सिहरन-सी हो रही है।
- सिहरन...अच्छा-अच्छा सा कुछ... लहरों की तरह पूरे वजूद में बह निकलने वाला कुछ....अनछुआ सा कुछ...
- हां, लहराते समंदर-सा उफनता हुआ कुछ...।
- मैं देख सकती हूं तुम्हारे भीतर के इस समंदर को।
- ऐसा क्यों हो रहा है मांडवी... पहले तो ऐसा कुछ नहीं हुआ था?
- हुआ न हो, पर था सब कुछ पहले से था, बस जरा सी मिटटी हटा दी, फिर सब दिखने लगा पानी ही पानी।
- यह कैसे संभव है?
- कौन जाने, पर देखो न! मैं खुद जैसे समंदर बन गयी हूं और लगातार पिघल रही हूँ तुम्हारे स्पर्श से...।
- पर मुझे तुममें समंदर तो नहीं दिखता?
- क्या दिखता है?
- आकाश....एक अंतहीन शून्य दिखता है तुम्हारे भीतर, जहां सैकड़ों संसार पनप सकते हैं।
- मैं आकाश हूं? तो ठीक! अपनी उंगली मेरी नीली स्याही में डुबाओ और इस धरती पर कुछ ऐसा लिख दो कि आज से कहीं नफरत ना रह जाये। कोई दीवार नहीं। बस प्यार ही प्यार हो हर तरफ.....।
- लिख तो दिया... अपने दामन पर गौर करो न! कितनी सारी तहरीरें हैं... आसमान में चांद जैसी।
मांडवी कांप उठी। दोनों एक गहन सन्नाटा उफना उठा। दोनों लहरों पर सवार हो गये। तूफान सा उठने लगा और वे गतिमान हो चले। तूफान का झोंका उन्हें बहुत करीब ले आया। पहाड़ जैसा संकोच पिघल कर पानी हो गया। लड़की ने अपना आंचल पानी की सतह पर फैला दिया। वह आंचल शिकारे में तब्दील हो गया। दोनों ने शिकारे में प्रवेश किया। शिकारा हवा के रुख पर बह चला। वे काफी दूर निकल गये। दूर दूर तक चांदनी की चादर बिछी थी। आसमान में रंग-बिरंगे गुब्बारे अठखेलियां कर रहे थे। दोनों की आंखें जगमगा उठीं। आंखों में उग रहे असंख्य सपने हरे हो गये। उन दोनों ने आजतक ऐसा जहान नहीं देखा था। मांडवी खुशी से चीख उठी। कैऽऽऽलाऽऽश....
कैलाश चैंक गया- पागल हो गयी हो...?
- नहीं, हो रही हूं, हो जाना चाहती हूं....ऐसा जहान यहां कैसे संभव है? इस धरती पर ऐसा जहान कैसे संभव है? कैलाश! देखो, चारों तरफ देखो। यहां कहीं भी किसी सपने का जनाजा नहीं उठ रहा। यहां लिखी तहरीरों को पढ़ो। यहां कोई स्त्री कभी बलत्कृत नहीं हुई। यहां बेगुनाह शंबूक कभी मारा नहीं गया... और तुम... तुम मेरी आंखों में अपना चेहरा पढ़ो। तुम इतने खूबसूरत कभी नहीं थे। वह रो पड़ी... कैलाश स्तब्ध। वह कुछ समझ नहीं पा रहा  था। यह दुनिया वास्तव में अद्भुत थी। चारों ओर अप्रतिम सौंदर्य छलक रहा था।
मांडवी की आंखों में खुशी का ज्वार फूट रहा था।
वह देर तक सिसकती रही। हल्की-हल्की बौछार में दोनों  खड़े-खड़े भीगते रहे। गुलाबी तासीर वाली हवा उनके आस पास तैर रही थी। कैलाश ने मांडवी को गौर से निहारा। मांडवी कितनी खूबसूरत और विराट है। वह बिखरती जा रही है और उसके भीतर नये-नये जहान खुलते जा रहे हैं। ऊंचे-ऊंचे पहाड़, गूंजती हुई, भीगी भीगी वादियां, नाचती हुई नदियां, बाग-बागीचे.... कैलाश उसकी ओर खिंचने लगा। उसकी आंखों में कुछ मासूम आंसू थे, आकांक्षाएं थीं और मांडवी यह साफ देख पा रही थी। वह उनकी अपील समझ रही थी और सब कुछ समेट लेना चाह रही थी।
कैलाश बोला-आज तुम इतनी रहस्यमयी क्यों दिख रही हो?
-मैं जैसी थी, वैसी ही हूं। बस, यहां जरा-सा विस्तार मिल गया है, यहां बंधन नहीं है, यहां वर्जनायें नहीं हैं, यहां कोई संकोच नहीं है, यहां तुम मुझे समझने की पूरी कोशिश कर पा रहे हो और मैं तुम्हारे सामने पूरी की पूरी खुल कर बिखर सकती हूं। यहां कोई मेरे पंख कतरने वाला कोई नहीं है, शायद इसलिए। पर क्या मेरे रहस्य अवांछनीय हैं?
-नहीं मांडवी, जरूरी हैं, क्योंकि तुम्हारे जो रहस्य आज मैं देख पा रहा हूं, पहले कभी नहीं देखे। ये रहस्य ऐसे तो बिल्कुल नहीं कि जिनसे भय खाया जाये। ये रहस्य तुम्हारे अस्तित्व में घुले हुए हैं। यही तुम्हारा सौंदर्य है। तुम निहायत खूबसूरत हो मांडवी...
वह शर्मा गयी। कैलाश उसे अपलक निहार रहा था। उसकी आंखों की रौशनी उसे भिगो रही थी। कैलाश ने दोनों हाथों से उसका चेहरा ऊपर उठाया और उसके माथे पर एक चांद उगा दिया। मांडवी रो पड़ी। कैलाश ने उसकी आंखों की नमी अपनी आंखों में उतार ली। दोनों इस अनुभूति को व्यक्त नहीं कर पा रहे थे। वे एक ऐसी दुनिया में थे, जहां हर पल मुक्ति का एक दरीचा खुल जाता है। उनकी निगाहें आपस में गुंथी हुई एक दूसरे से कह रही थीं कि हम इस दुनिया को ऐसे ही खूबसूरत रहने देंगे। हम यहां कोई दीवार नहीं खड़ी होने देंगे। हम इस दुनिया को मानवमुक्ति की दुनिया बनायेंगे।
मांडवी ने अपना हाथ कैलाश की ओर बढ़ा दिया। कैलाश ने अपने दोनों हाथों में उसकी हथेली कस ली। वह अंगारे की तरह गर्म थी और उसमें एक सुखद सी अनुभूति थी। उस अनुभूति वे दोनों कांप रहे थे। मांडवी उसकी ओर खिंची आ रही थी। वे एक दूसरे की सांसों की गरमाहट को महसूस कर रहे थे। दोनों की धड़कने सन्नाटे में पदचाप की तरह साफ सुनायी दे रही थीं। दोनो की सांसों में एक अर्थ भर गया। कैलाश की याचनापूर्ण निगाहें मांडवी की निगाहों से टकरायीं और एक खूबसूरत चिंगारी फूट पड़ी। कैलाश सोच रहा था कि शायद इसी तरह दुनिया में पहली बार आग का अविष्कार हुआ होगा। मांडवी सोच रही थी कि इसी तरह धरती पर सृजन की शुरुआत हुई हो। वह लरजते होठों से बुदबुदायी- कैऽऽऽलाऽऽश....। कैलाश ने अपना हाथ बढ़ाकर उसे अपने घेरे में कस लिया और बोला- माफ करना मांडवी, तुम्हारा रूप इतना विराट हो सकता है, मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मैं निरा अनजान था। तुम मेरे लिए उतनी ही जरूरी हो, जितना कि मेरा अस्तित्व। मुझे अपने भीतर कहीं जज़्ब कर लो। मैं मुक्त कर दो मांडवी। भर दो मेरा अधूरापन। यह खुशी मुझे पागल कर देगी....।
-हां कैलाश, अब हम साथ हैं- मुक्तिमार्ग के सहयात्री। हम एक दूसरे की आंखों से दुनिया देखेंगे, फिर जो भी हमें दिखेगा, बिना किसी विरोधाभास के वह असली दुनिया होगी। यहां हम मुक्त हो सकेंगे।
-मांडवी, तुम मुझे अपने भीतर जज़्ब करके दोबारा जनो। इससे मेरा परिष्कार होगा। मेरा पुनर्जन्म मुझमें तुम्हारे साथ चलने का सलीका भर देगा।
-पुनर्जन्म तो तुम्हारा हो रहा है कैलाश, देखो, ग्रहण लगा हुआ है। मैं महसूस कर सकती हूं, मैं देख सकती हूं कि तुम पिघल चुके हो और पुनः आकार ले रहे हो।
उसने कैलाश को अपनी बाहों में किसी बच्चे की तरह भींच लिया। उसका आंचल फिर शिकारे में तब्दील हो गया। वे दोनों फिर से उस पर सवार हो गये। अब उन्हें कोई भय नहीं था, अब कहीं कोई दीवार नहीं थी। वे किसी भी ओर जा सकते थे, कोई भी राह चुन सकते थे।

Thursday, June 7, 2012

जब महाप्राण रोये


इलाहाबाद शहर को आप देभूमि भले कह लें, पर वहां देता बिल्कुल नहीं बसते। कभी रहे हों तो मैं नहीं कह सकता। वहां भी वैसे ही लोग हैं, जैसे हिंदुस्तान भर में या बाकी दुनिया के किसी कोने में पाये जाते हैं। मेरी छह साल की रहनवारी में मुझे वहां कोई देवता नहीं मिला। न इलाहाबाद की चौड़ी सड़कों पर, न संगम तट के दूर तक फैले रेतीले मैदान पर। धर्मवीर भारती के ‘गुनाहों का देवता' वाला नगर देता भी नहीं मिला। छल मिला, कपट मिले, हत्या मिली, बलात्कार मिले। सपनों को पिसते देखा। और कुछ बीत चुकी आत्माओं को बिलखते देखा। दो आत्माएं कई-कई बार मिली- जहां-जहां कुछ धतकरम होता दिखता, वहां-वहां। अक्सर चौड़ी छाती, लंबी दाढ़ी वाला एक 'महाप्राण' क्रंदन करता हुआ दिख जाता था। मैंने उनसे कई बार पूछा- बाबा आप रोते क्यों हैं? वे बोले- जिन बातों को जीते जी नहीं सहा, मरे के बाद वह सब रोज सहना पड़ता है। हमारी संतानें ही हमारे सपनों को रौंद रही हैं। यह सब देखता हूं तो आत्मा रोती है। यह बात कई दफा हमने अपने साथियों को दिखाने-बताने की कोशिश की तो उनने हमें पागल करार दे दिया। कहा-तू अभी कवि हुआ नहीं है, बस होने की कोशिश कर रहा है और अभी से तेरे लक्षण ठीक नहीं हैं। तू विश्वविद्यालय न आकर पागलखाने जाया कर। 

सुना है कि महाप्राण ने अपने जीवन में कभी किसी की आंख में आंसू बर्दाश्त नहीं किये। पुरस्कार में मिली शॉल सड़क पर पड़ी ठिठुरती अधनंगी महिला को ओढ़ा दी तो पूरी की पूरी तनख्वाह रिक्शे वालों में बांट दी। जिस राह से वे गुजरें, उस राह कोई भूखा या नंगा दिख जाये तो जो कुछ पास होता, सब उसे दे आते थे। अब उस धरती पर ऐसा नहीं होता।  
हमने और भी कुछ देखा। कई बार एक ‘दुख की बदली' देखी। इलाहाबाद के आसमान पर मंडराती हुई  उसकी चीख अक्सर ही सुनी जा सकती है। ह कितने सपने बो कर गई थी, सब के सब खौफनाक मौत मारे गये। वह महाप्राण की तरह सड़कों पर नहीं दिखती। उसने अपने जीन की तरह रोने के लिए भी एकांत चुना है। आंसुओं का तिरस्कार शायद उसे बरदाश्त नहीं होता है। संगम तट पर मौजूद अकबर के किले के पीछे चुपके-चुपके कई बार जार-जार बरसते देखा उसे। 

जिन तमाम मौकों पर उन्हें चीखते-बिलखते देखा, उनमें से एक वाकया सुनाता हूं। मैं कहानीकार होता तो इसे कहानी कहता। लेकिन जो मैं कहने जा रहा हूं वह मानव के पशु होने की महा-दुर्घटना है। इसे त्रासदी कहने में मुझे ज्यादा सुविधा हो रही है। 
मार्च का महीना था। मौसम में फागुन की महक और आलस्य दोनों ही घुलने लगे थे। विश्वविद्यालय  परिसर में लगे अमलतास और गुलमुहर के पेड़ों पर फूलों के गुच्छे झूमर की तरह लटकने लगे थे। चहारदीवारियों पर लटकती बेलें परिसर को और सुंदर बना रही थीं। परीक्षा छात्रों की खोपड़ी पर सवार थी और वे लगातार उससे जूझ रहे थे। इसलिए परिसर अब जरा सूना-सूना दिखने लगा था। तमाम छात्रों के कमरे के दराजे कई-कई घंटे बाद खुलते। वे अपने को किताबों में झोंक देना चाह रहे थे। रोज शाम को सड़कों पर, चौराहों पर परीक्षाओं को लेकर हजारों चर्चाएं एक साथ चलतीं। अगर आप इलाहाबाद गये हों, या रहे हों तो आपको मालूम होगा कि हां की शाम बहुत ही सुहानी होती है। हजारों सपने एक साथ सड़कों पर उतर आते हैं। जसे कोई गुलशन गुलजार हो और तमाम फूल एक साथ हंस उठें। हर चौराहे पर हजारों की संख्या में छात्र निकलते हैं, गप्पें मारते हुए चाय पीते हैं, सब्जियां  जरूरत के सामान खरीदते हैं औरोपस अपने कमरे पर आ जाते हैं। ये युवा जीवन की चुनौतियों से जूझने को तैयारी कर रहे होते हैं। दुनिया को अपने मुताबिक आकार देने के सपने देख रहे होते हैं। वे जमाने को दिशा देने की योजनाओं पर सिर धुन रहे होते हैं। उनकी आंखों में उम्मीदों का सैलाब देखकर आपको हौसला मिल सकता है। आपको एक उम्मीद मिल सकती है। हर शाम इस तरह उनका उमड़ना बहुत सुखद लगता है। 

यह एक ऐसा शहर है जहां आकर हर युवा कुछ समय तक के लिए ही सही, पर थोड़ा आदर्शवादी हो ही जाता है। यहां की एक परंपरा है, कि हर विद्यार्थी जैसे ही पहले साल विश्वविद्यालय में दाखिला लेता है, तो सीनियर छात्र उसे गुनाहों का देता पढ़ने की सलाह देते हैं। हर बीए का छात्र कम से कम बीए के दौरान अपने को चंदर समझता है और उसे एक सुधा की तलाश रहती है। यह बात दीगर है कि यह फैंटेसी ज्यादा दिन नहीं टिक पाती। 
इन्हीं आदर्शादी युवाओं में से कुछ कभी-कभी भटकते हैं और वे खुद को हशी होने से नहीं रोक पाते और इन्हीं पर तरस खाकर महाप्राण रोते-बेचैन होते हैं। 

रोज की तरह एक खुशनुमा शाम की बात है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से लगा हुआ प्रयाग स्टेशन। करीब पांच बज रहा था। चारों तरफ लोग ही लोग। कुछ भीड़-भाड़ सी थी हर ओर। स्टेशन के बाहर चाय की दुकान पर तमाम लोग जमा थे। प्रयाग स्टेशन से लगा हुआ विश्वविद्यालय का एक हॉस्टल है। उस भीड़ में हॉस्टल के कुछ छात्र भी थे। वे चाय पीते हुए बातों में मशगूल थे कि अचानक एक लड़की आई और दुकानवाले से समोसे मांगने लगी। सामान्य कद-काठी, खूब गोरा रंग। चेहरा धूल-मिट्टी में सन गया था और उस पर काले-काले धब्बे से उभर आये थे। लंबे और कुछ-कुछ घुंघराले बालों में गंदगी के कारण लट पड़ गयी थी। लड़की मानसिक रूप से विक्षिप्त लग रही थी। उसके कपड़े बुरी तरह मैले हो चुके थे और जगह-जगह से उनके फटे होने की जह से बाकी शरीर के साथ स्तनों के कुछ हिस्से बाहर झांक रहे थे। एक हाथ पर आस्तीन थी और दूसरा कंधे तक खुला था। सर से पांव तक गंदगी में सनी होने के बाद भी वह देखने में खास बुरी नहीं लग रही थी। यह अंदाजा लग रहा था कि एक सुंदर सी दिखने वाली लड़की है, जो पागल हो गयी है। इधर कुछ दिन से वह स्टेशन के आसपास घूमते हुए दिख जाती थी। वहां मौजूद सब लोग उसे ही देखने लगे। वह समोसे लेने के लिए हाथ फैलाए हुए दुकान वाले के और करीब चली गयी तो उसने उसे डांटा और वहां से भाग जाने को कहा। इस पर लड़कों के झुंड से एक ने उस पर दया दिखाई और दुकान वाले से बोला- जो मांगे, दे दो उसे। पैसे की चिंता मत करो। देख नहीं रहे हो उसका दिमाग थोड़ा ठीक नहीं है? लड़की बिना किसी ओर देखे उसी मुद्रा में दोनों हाथ फैलाए खड़ी रही। दुकान वाले ने उसकी दोनों हथेलियों पर एक-एक समोसे रख दिये। वह एकदम निस्तब्ध थी। न हंस रही थी, न मुस्करा रही थी, उसने कुछ देर तक समोसे लिए हुए हथेलियों को निहारा और फिर एक ओर खिसक कर खाने लगी। इस बीच लड़कों की आपसी बातचीत बंद हो गयी थी और सब के सब उसी को देख रहे थे। एक लड़के ने आवाज दी तो लड़की ने पलट कर देखा। लड़के ने उसे पास आने का इशारा किया। वह आकर उसके बगल खड़ी हो गई। लड़के ने पूछा- भूख लगी है? 

उसने हां में सर हिलाया। लड़के ने पूछा- जलेबी खानी है? उसने फिर हां में सर हिलाया। लड़के ने दुकानवाले से कहकर उसे जलेबी दिलायी। वह खाने लगी और लड़के उससे कुछ-कुछ साल करने लगे। लड़की बेतहाशा बड़े-बड़े निवाले खाए जा रही थी और उनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दे रही थी। एक लड़के ने थोड़ी रुखाई से कहा- ये तो सुनती ही नहीं है, बहरी है क्या? इतना कहना था कि वह जोर से हंसी और चबाते हुए शब्दों में बोली- हा.हा..हा.हा.. यही तो वह भी कहता था कि तू बहरी है। तू कुछ नहीं सुनती। उसे कैसे बताती कि तुम्हारे अलावा कुछ सुनाई नहीं पड़ता़.. हा.हा..हा.हा..
सब लड़कों ने एक दूसरे को जिज्ञासा से देखा और अंदाजा लगाया कि हो सकता है कि इसका प्रेमी इसे छोड़ गया हो। खैर, क्या हुआ उससे क्या लेना देना? 

एक ने फिर पूछा- चाय पिओगी? उसने हां में सिर हिला दिया। चाय आ गयी। उसने चाय पी ली। अब वह थोड़ी खुश दिखने लगी। शायद भूख मिट जाने के कारण। लड़के लगातार ठिठोली किये जा रहे थे। कोई नाम पूछ रहा था। कोई घर पूछ रहा था। कोई पूछ रहा था- कपड़े कैसे फट गये? कोई पूछ रहा था इतनी गंदी हो, नहाती क्यों नहीं? एक लड़के ने बुरी तरह आंख नचाते हुए उसके स्तनों की ओर इशारा किया- कपड़े खींच कर उसे ढंक लो? इस पर लड़की ने कपड़े में हुए छेद में उंगली फंसाई और खींच कर थोड़ा सा और फाड़ दिया। इस पर लड़के ठहाके मार कर हंस पड़े। 

लड़कों की बातें और हरकतें पास की बेंच पर बैठे एक बुजुर्ग को बुरी लगी तो वे उठे, बुदबुदाते हुए एक भद्दी सी गाली दी और चले गये। 
इतनी देर में वह लड़की इन लड़कों के लिए तमाशा बन चुकी थी। वे सभी भरपूर मजा लेने को आतुर थे और लड़की इस सबसे बेखबर। अब वह अपने शरीर के प्रति सजग स्त्री नहीं रह गयी थी। शायद अब उसे किसी बुरी निगाह से डर लगना बंद हो गया था। वह चाय पी चुकने के बाद भी बेखौफ बैठी रही। शायद बहुत दिनों बाद उसे किसी ने खिलाया पिलाया हो, और यह उसे अच्छा लगा हो। या जो भी हो, पर वह खा-पी चुकने के बाद भी वहां से गयी नहीं। ऐसा शायद इसलिए भी हो, कि अब जब उसे देह बचाने का डर नहीं है, तो वहां से हटने का ख्याल ही क्यों आये? 

थोड़ी देर बाद लड़कों ने एक दूसरे को इशारा किया कि अब चलना चाहिए। सभी उठ खड़े हुए। वह बैठी रही। एक ने कहा- आओ तुम भी चलो। उसने इशारे में पूछा- कहां? दूसरे ने कहा- आओ आओ तुम भी चलो साथ। खाना खाओगी? खाना है तो आओ। वह उठी और उन लोगों के पीछे चल दी। 

सब लोग हॉस्टल पहुंचे तो जाने क्यों ह बाहर ही ठिठक गयी। लड़के उसे अंदर बुलाने की कोशिश कर रहे थे मगर ह बेपरवाह इधर-उधर देख रही थी। अंतत: वे उसे फुसला कर अंदर बुलाने में कामयाब रहे। 
लड़कों कि आपस कि बातें ऐसी थीं कि उन्हें सुनने वाला सोच सकता था कि इस लड़की का जीवन अब सफल हुआ। उसकी चिंता करने वाले उसे मिल चुके हैं और अब वह अपनी तकलीफों से मुक्त हो जाएगी। 

सारी पटकथा तैयार हो गयी। सब लड़के एक कमरे में इकट्ठा हो गये। यह उस गैंग के सरदार का कमरा था। लड़की को अंदर बुलाकर सीधे बाथरूम ले जाया गया।  दो लड़कों को उसे खूब अच्छी तरह नहलाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी ताकि वह साफ सुथरी हो जाये और बदबू न करे। हॉस्टल के तमाम लड़कों के लिए जसे कठपुतली नाच सरीखा कोई खेल चल रहा था। वे यह सब देख रहे थे और मजे ले रहे थे। आखिर जूनियरों को वहां से यह कहकर भगा दिया गया कि क्या तमाशा देख रहे हो? अरे बेचारी पागल है। जरा उसको सलीके से कर देंगे तो ठीक रहेगा। इतनी सुंदर लड़की मारी-मारी फिर रही है। चलो, सब भागो यहां से।  

दोनों लड़कों ने उसे बाथरूम में लाकर नहाने को कहा तो वह  सहर्ष जा कर पानी की बाल्टी के पास बैठ गयी। उन्होंने उस पर पानी डालना शुरू किया। नहाना शायद उसे अच्छा लग रहा था। वे उस पर पानी डालते तो वह उछल कर खुश होती। एक लड़के ने उसके हाथ में शंपू उड़ेला और बालों में लगाने को कहा। उसने बालों को शंपू किया, पर बेसलीका तौर पर। साबुन लगाने की दफा वह अजीब हरकतें करने लगी। एक ने उसे साबुन पकड़ाया तो वह हाथ में लेकर उसे सूंघने लगी। उन्होंने चेहरे में लगाने को कहा तो उसने साबुन पानी में डाल दिया। काफी कोशिश के बाद भी वह ढंग से अपने अंग साफ नहीं कर रही थी और सबकी राय थी कि यह जरूरी है। दो लोग नहला रहे थे बाकी बार-बार आ-जा रहे थे, मुआयना कर रहे थे। अंतत: फैसला हुआ कि उसके कपड़े भी तो कितने गंदे हैं। उन्हें फेंको उतार कर और उसे अपने हाथों से खुद नहलाओ। पहले तो दोनों लड़कों ने थोड़ा संकोच किया, लेकिन फिर जुट गये। दरवाजा बंद कर लिया गया। उन्होंने उससे कपड़े निकालने को कहा तो वह भाग कर एक किनारे दीवार से जा लगी और जोर जोर से सिर हिलाने लगी। एक लड़के ने बढ़कर उसे खींच लिया और उसके कपड़े लगभग फाड़ते हुए उतार दिया। इस पर वह जोर जोर से चीखने लगी। उसकी चीख हॉस्टल भर में फैल रही थी। दूसरे लड़के ने उसका मुंह जोर से साध लिया और उसे पुचकार कर समझाने लगा कि चिललाओ मत, नहा लो अच्छी तरह, फिर तुम्हें नये कपड़े पहना देंगे। फिर तुम खूब सुंदर लगोगी। वह नहीं मानी तो दूसरे ने उसका मुंह खूब जोर से दबा दिया जिससे वह बेतरह डर गयी और चुपचाप कांपती रही। वे दोनों उसे पुचकारते रहे और वह जाल में फंसी सहमी हिरनी की तरह सांस थामे उन दोनों को देखती रही। उन्होंने उसे एकदम नंगा कर दिया था और साबुन लगा-लगा उसे नहला रहे थे। वह बीच बीच में भागने की कोशिश करती तो वे उसे दबोच लेते। वे काफी देर तक उससे उलझे रहे। 

यह कहने की जरूरत नहीं कि उनका उद्देश्य उसे नहलाना नहीं था। जो था, उसे अंजाम दिया जाना शुरू हो चुका था। उसे नहलाते हुए वे उसके अंगों को छेड़ रहे थे। खिलौने की तरह उससे खेल रहे थे। वह लड़की यदि विक्षिप्त न होती तो शायद कुछ और होता, शायद वह चीखती, रोती, गिड़गिड़ाती। पर यहां बात और थी। उसकी चेतना इस सब से परे हो चुकी थी और क्या हो रहा था उसे क्या पता? हां, वह बार-बार छुड़ाने की नाकाम कोशिश कर रही थी। काफी देर हुई तो बाहर दराजे पर गैंग के सरदार ने दस्तक दी- अबे क्या कर रहे हो? बाथरूम में ही सही कर दोगे क्या? ले आओ अब, बस हो गया। इतना साफ कर दो कि उल्टी न हो जाये बस। 
अंदर से आवाज आयी- क्या करें भाई, साली हाथ नहीं रखने दे रही। वैसे हो गया। बिना सुरक्षा कच के और कुछ करने लायक नहीं है। ले चलो कमरे में। 

उन्होंने तौलिए से उसे पोंछ कर उसके शरीर का पानी सुखाया। फटी पुरानी एक लंबी टी-शर्ट किसी की लाकर पहना दी। नीचे तौलिया लपेट दिया और उसे कमरे में ले आये। एक ने कमरे की आलमारी पर रखा डियो और पाउडर का डिब्बा बढ़ाते हुए कहा- इसे भी लगा दो, ठीक रहेगा। और दूसरे ने डियो की शीशी से उस पर फुहारें बरसा दीं। जब तक उसे नहलाया गया, तब तक इधर कंडोम और वियाग्रा के पैकेट मंगाये जा चुके थे। 
रात के आठ बजने को थे। शहर धीरे-धीरे शांत होने लगा था। आसमान में तारे बिछ चुके थे। चांद क्षितिज पर सहमा हुआ सा चुप-चुप झांक रहा था। हॉस्टल के सामने वाली सड़क पर कुछ कुत्ते घूम रहे थे जो कभी-कभी रोने जसी आवाजें कर रहे थे। सन्नाटे में घुली हुई रात की स्याह तासीर चारों ओर पसर गयी थी। शैतानी ताकतें और सक्रिय हो गयीं थी। हॉस्टल के कॉमन रूम में कुछ एक जूनियर छात्र बैठे थे और शनि देओल की किसी फिल्म का रेप सीन चल रहा था। खलनायक थे, बलत्कृत होती मासूम नायिका थी और कुछ मरी हुई चेतना वाले तमाशबीन थे। उस दिन फिल्म में हीरो की एंट्री नहीं हुई, न ही ‘कुत्ते मैं तेरा खून पी जाउंगा' जैसा कोई डायलॉग सुनाई दिया। 

जिन दो लड़कों ने उसे नहलाया था, उनमें से एक ने कहा- भाई, है बहुत कंटास पीस। समझ लो एकदम आग है। मेरा तो दिमाग गरम हो गया, अब काम ही नहीं कर रहा। गैंग का सरदार बोला- ठीक है, ठंडा कर लेना अभी। एक और लड़के ने कहा- तो भाई देर किस बात की। बकरा तैयार है। बेदी भी। पूजन सामग्री भी। बस, हलाल करना बाकी है। सरदार थोड़ा झिड़कते हुए बोला- जाओ भागो सब यहां से, थोड़ी देर में बुलाउंगा तो आना। सरदार को छोड़कर बाकी पांच लोग कमरे से बाहर चले गये और कमरा बंद हो गया। 
सरदार लड़की की ओर बढ़ा तो लड़की तख्त पर लगे बिस्तर पर एक कोने सिमट कर बैठ गयी। उसने नजदीक जाकर उसे पकड़ लिया। वह झिटक कर भागने की कोशिश में तख्त से नीचे आ गयी। थोड़ी देर यह सिलसिला चलता रहा कि सरदार के भीतर का पशु उस अबोध पर झपट पड़ा। एक झटके में उसके गिर्द लिपटा तौलिया दराजे के पास जा गिरा। टी-शर्ट फाड़कर शरीर से दूर फेंक दी गयी। क्षिप्त लड़की भी शायद अपने लुटने की आहट कुछ देर पहले ही पा चुकी थी और निर्वसन खड़ी कांप रही थी। आखिर शिकारी एक चेतनाशून्य जीव का शिकार करने में कामयाब हो गया। 

हर कोमल चीज क्रूरता के आगे हार जाती। दीन-दुनिया से अनजान एक पागल, जो ऐसे ही किसी आघात से अपने को खो चुका था, चेतनाहीन हो चुका था, उसे कुचला गया। उसकी देह को खिलौना बनाया गया यह बोध भी तो उसे नहीं हो सकता था। दो समोसे खाकर वह उस बंदर की तहर फंस गयी थी जो दाने के लालच में संकरे घड़े में हाथ डाल तो देता है, लेकिन अनाज भरी बंद मुट्ठी निकाल नहीं पाता और पकड़ा जाता है। 

एक के बाद एक बाकी पांच लोग भी आये गये। कोई दो बार, कोई चार बार या जिससे जितना हो सका। दो जन की बारी तक वह अपने को बचाने की कोशिश में छटपटाती रही थी। तीसरे की बारी आने तक वह बेहोश हो गयी थी।
अगले दिन सुबह वह कमरा बंद था। कुछ-कुछ देर बाद कोई एक जाकर दराजा खोल कर मुआयना कर आता- अभी मरी नहीं है। सांस चल रही है। अगर मर गयी तो? तो रात को लाद कर गंगा के कछार में फेंक आएंगे..। 

तीन बजे उसे होश आया तो वह दराजा पीटने लगी। एक ने आकर दराजा खोला। अब तक वह निर्वसन थी और बेहद डरावनी हो गयी थी लेकिन वह डरा नहीं। उसने उसे वह टी-शर्ट फिर पहना दी, जो कि काफी कुछ फट चुकी थी। एक पुराना सा पैंट नीचे पहनाया गया। अब तक सभी कमरे में इकट्ठा हो गये थे। अब तक सबकी यह राय जाहिर हो चुकी थी कि जल्दी से इसे यहां से दफा करो, वरना मुसीबत गले पड़ सकती है। एक ने उसे बिस्कुट का पैकेट खाने को दिया। उसने पैकेट हाथों में लेकर देखा और नीचे गिरा दिया। 
जैसे ही लड़कों ने उसे छोड़ा, वह दरवाजे से बाहर निकल गयी और तेज कदमों से चलती गयी। दो लड़के उसका पीछा करने लगे कि देखो कहां जाती है? वह प्रयाग स्टेशन तक गयी और एक भूजा वाले ठेले के पास खड़ी हो गयी। ठेले वाले ने उसे दो- चार मूंगफलियां दी जिसे लेकर मुंह में भरते हुए वह आगे निकल गयी। 

आखिरी बार उसी जगह हमने महाप्राण को दहाड़ मार-मार कर रोते देखा। ठीक उसी समय वह दुख की बदली रेजा-रेजा बिखर रही थी.. बरस रही थी, किले की दीवार के पीछे। उसके बाद मैं इलाहाबाद कभी नहीं गया। 

Wednesday, May 30, 2012

जाको राखे अमरीका


वह अमेरिकी दूतावास के सामने खड़ा आटो का इंतजार कर रहा था और सोच रहा था कि दिल्ली में अमेरिकी दूतावास होने की क्या जरूरत है? सुबह ही उसने एक विलुप्तप्राय से अखबार में एक अमेरिकी स्कालर का बयान पढ़ा था, जिसमें उसने कहा था कि वह आया था गांधी का भारत देखने, लेकिन यहां सी-ग्रेड का अमेरिका देख रहा है. सुबह से उसके दिमाग में यही एक बात गूंज रही थी कि इंडिया दैट इज भारत, दैट इज सी ग्रेड अमेरिका... दूतावास के सामने दूर तक लंबी लाइन लगी थी. ये लोग अमेरिका जाने के लिए वीजा बनवाने की कतार में खड़े थे, जैसे दिल्ली से बिहार जाने वाली ट्रेन के लिए टिकट काउंटर पर लाइन लगती है. 

वह सोच रहा था कि भारत में जब शहर-दर-शहर, गली-गली अमेरिका है और फैलता जा रहा है तो अलग से अमेरिकी दूतावास की जरूरत क्या थी. वैसे है तो यह सिर्फ एक दफ्तर, जहां से अमेरिका संबंधी प्रशासनिक कामकाज होता है, लेकिन वीजा भी तो भारतीय दफ्तरों से ही मिल सकता है. अब तक वीजा चाहने वालों की लाइन और लंबी हो गयी थी. लग रहा था कि अब वहां की जगह छोटी पड़ जायेगी. न सिर्फ दिल्ली में अमेरिकी दूतावास के लिए, बल्कि पूरे भारत में अमेरिकी विस्तार के लिए. यह बात उसे थोड़ी परेशान भी कर गयी कि अमेरिका के विस्तार के लिए बेचारा भारत कितना छोटा है? 

लोग कतारों में खड़े थे और अंग्रेजी में बातें कर रहे थे. वह चुपचाप खड़ा-खड़ा कुढ़ रहा था कि काश मुझे भी अंग्रेजी आती तो इन लोगों से पूछता कि वे अमेरिका के लिए पागल क्यों हैं? उन्हें हिंदी आती होगी, वह ऐसी आशा नहीं करता. 

भागम-भाग और अफरा-तफरी जैसी स्थिति थी. उससे थोड़ी दूर पर एक कम उम्र की औरत गोद में अपने एक या दो साल के बच्चे को लिए किसी मर्द से बातें कर रही थी. बच्चा कुछ कहना चाह रहा था. वह बार-बार उसका मुंह पकड़ कर अपनी ओर घुमाने की कोशिश करता तो वह उसे एक चाकलेट पकड़ा देती. बच्चा हर बार चाकलेट फेंक दे रहा था. जब उसने तीसरी बार चाकलेट फेंक दी तो स्त्री थोड़ी दूर किनारे पर खड़ी कार के पास गयी. कार का दरवाजा खोला और बच्चे को अंदर बंद कर दिया. अब सारी चिकचिक खत्म. बच्चा गाड़ी के अंदर शीशे से चिपक कर चीख रहा था. उसकी मां ने उसकी ओर पीठ कर ली और बातें करने में मग्न हो गयी. वह बातचीत के बीच-बीच में अपने बाल झटक रही थी. उसने एक झीनी सी मिनी स्कर्ट पहन रखी थी. उसे याद नहीं आ रहा था कि आज से पहले उसने इतनी भद्दी स्त्री कभी देखी हो. 

उसे आटो पकड़ कर आईटीओ पहुंचना था. वहां वह एक ’आंदोलनकारी’ अखबार के दफ्तर में काम करता है, लेकिन पत्रकार नहीं है. वह अखबार के दफ्तर में नौकरी करता है और निश्चित तौर पर पत्रकार नहीं है. उसके दफ्तर में कोई भी पत्रकार नहीं है. वह डर रहा है कि अगर उसे देर हुई तो दफ्तर से बॉस का फोन आ सकता है, जो न सिर्फ देर होने के लिए डांटेगा, बल्कि ’अगर काम न कर पाना हो नौकरी छोड़ दो’ जैसी सलाह भी दे डालेगा. 

 वह खड़ा ऐसा सोच रहा था और उसके ठीक बगल एक बूढ़ा आदमी बैठा था. वह शायद खड़ा नहीं हो सकता था. आम तौर पर जैसी बूढ़ों की आदत होती है कि वे चुप नहीं बैठते और हर किसी को कोई न कोई सलाह देते रहते हैं, इसके एकदम विपरीत वह चुपचाप था. उसकी यह चुप्पी काफी परेशान करने वाली थी क्योंकि वहां सिर्फ तेज रफ्तार गाडि़यों के गुजरने की सांय सांय ही सुनाई देती थी, जिसमें कोई भी व्यक्ति डर सकता था. इस दौरान वह सोच रहा था कि मेरे बाबा होते तो क्या-क्या सलाह दे डालते. वह सोच रहा था कि काश इस भयानक शहर में लोग एक दूसरे को पहचानते होते. 

वह आते जाते वाहनों को बेपरवाही से देख रहा था. कौन जाने किस गाड़ी में किसी लड़की का पांच-सात लोग मिलकर बलात्कार कर रहे हों, जैसा ठीक एक दिन पहले हो चुका था और आज उसने अखबार में यह खबर पढ़ी थी. या फिर किसी गाड़ी में किसी पूंजीपति की दलाली करने वाली महिला किसी बहुत बड़े पत्रकार से फोन पर बात करती हुई जा रही हो और उसका ड्राइवर इस बातचीत में कोई रुचि न ले रहा हो. या मजे ले रहा हो और सोच रहा हो कि देश का बोझ न तो मेरे सर पर रखा है और न ही वे लाखों करोड़  मेरे पिता जी के जेब से आये हैं जो घोटाले में खाये जायेंगे. या फिर उसे अपने ड्राइवर होने का बोध इस हद तक हो कि वह भाई- भतीजावादी पूंजीवाद में नेता-पत्रकार और कारपोरेट के बीच के गठबंधन में कोई दखल देना अपने अधिकार और पहुंच से बाहर की बात समझता हो. बहुत मुमकिन यह भी है कि वह सब समझ रहा हो, कुढ़ रहा हो मगर मालिक की तरफ से की जाने वाली देशसेवा के खिलाफ कुछ बोलने की हिम्मत न जुटा पा रहा हो. कौन जाने कि वह भी एक समझदार और पढ़े लिखे भारतीय की तरह सोचता हो, कि दुनिया जाये भाड़ में, अपने राम को क्या लेना? 

वह इस शहर में चार महीने पहले पहुंचा है और अब लौटने के बारे में सोच रहा है. पर मुश्किल यह है कि रोटी उसे गांव लौटने नहीं दे रही और यह शहर उसे यहां रहने नहीं दे रहा. बड़े-बड़े बंगले हैं. चैड़ी-चैड़ी सड़कें  हैं. सनसनाती गाडि़यां हैं. वीरान से मंजर हैं. अगर आप सहम कर मर नहीं जाते, तो गारंटी है कि घुट-घुट कर जी सकते हैं. उसकी प्रेमिका, जो उसके साथ दिल्ली में नहीं है,  उसे बहुत समझदार और इस दुनिया के कुछ-एक नेकदिल इंसानों में से एक मानती है. पर शायद ऐसा सोचने वाली वह इस दुनिया की अकेली प्राणी है. जब वह आने लगा था तो उससे वादा करके आया था कि शहर से नौकरी लेकर वह जल्द ही लौटेगा और उससे शादी करेगा. 

वह इस महानगर में खो गया है और उसे बारहा डर लगता है कि वह खोखला हो रहा है और अपनी प्रेमिका को अपने भीतर महफूज नहीं रख पायेगा. उसे यह भी पता है कि वह रोज रात में देर तक जागती है. जब सभी घर वाले सो जाते हैं तो वह सिसकियों का गला घोंट कर अपने तकिये भिगोया करती है. यह सब सोच कर अक्सर वह दुःखी हो जाता है. जब भी उसे रुलाई आती है और तमाम प्रयत्नों के बाद भी नहीं रुकती तो वह खुल कर रो लेता है. लेकिन यह बात उसके अलावा इस दुनिया में कोई नहीं जानता. वह कभी कभी कविताएं लिखता है जो कविता कम, उसकी प्रेमिका के प्रति उसका माफीनामा ही अधिक होती है. फिलहाल वह उसके लिए इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकता, क्योंकि इससे ज्यादा उसके पास समय नहीं है. 

वह लोगों से बात करने में हिचकता है. उसकी समस्या है कि जब वह किसी अंग्रेजीनुमा हिंदुस्तानी को देखता है तो सोचता है कि उससे बात कैसे करूं? कहीं वह अंग्रेजी में बोलेगा तो? वह तो मुझे आती नहीं. और तमाम मंथन के बाद वह उससे बात नहीं करता. हर ऐसी घटना के बाद उसे एक चुक-चुके आरएसएस कार्यकर्ता की एक बात याद आती है जिन्होंने एक बार मजाक में कहा था कि भारत में रहना और कमाना खाना है, इज्जत पानी है तो अंग्रेजी पढ़ो. मैकाले धर्म ग्रहण कर लो. यह मसला भाषा का नहीं, मैकाले होने का है...
मजाक में कही गयी यह बात उसे अपनी नियति लगती है. 

दिल्ली किसी को भी आसानी से आंख मूंद कर चलना सिखा देती है. यहां हर व्यक्ति सड़कों पर आंख मूंद कर चलता है और चलता रहता है. चैड़े हाइवे पर तमाम युवा सपनों का बलात्कार होता है, जिसे लोग अपने-अपने घरों में टेलीविजन की आंख से देख लेते हैं. इस शहर ने दरवाजों के सामने सन्नाटे पैदा कर लिये हैं और कमरों में कृत्रिम सा संसार बसा लिया है. इन गलियों में तमाम सपनों की चीख नक्कारखाने में तूती की तरह गुम हो जाती है. उनकी बदहाल सूरतें खेलकूद वाले पोस्टरों से ढंक दी जाती हैं ताकि देश  काफी खूबसूरत दिखे. अंकल सैम सिर्फ पैकेट की तारीफ करते हैं. अंदर क्या भरा है, इससे उनको कोई सरोकार नहीं. दिल्ली की गलियों में कहीं भी आंख-कान खोल कर खड़े हो जायें तो मिर्चपुर से दंतेवाड़ा तक सपनों के निकलते जनाजे दिखाई पड़ते हैं. लोकतंत्र सीना चौड़ा किए रेसकोर्स पर दलीलें दे रहा है और और तमाम इरोम शर्मिलाएं जंतर-मंतर आ-आकर वापस लौट जाती हैं. वे एक-एक दशक से गांधीवाद का पुछल्ला पकड़े भूख हड़ताल पर हैं. उन्हें यह भ्रम है कि एक दिन विश्व का सबसे बड़ा स्वयं-भू  लोकतंत्र उन्हें कानूनी बलात्कारों से मुक्ति दिला देगा. वह अपनी सेना को युवतियों का बलात्कार करने से रोक लेगा...

उसने अपने जेहन में दिल्ली की तस्वीर उतार ली है, जो दफ्तर जाकर फिलहाल किसी से नहीं बतायेगा. अपने बास से भी नहीं, वरना उसकी नौकरी जा सकती है. तस्वीर एकदम सुर्ख है. उस पर लाल और काले रंग में फिल्म की शुरूआत होने की तरह एक डिजाल्व चल रहा है- नेता, मंत्री, न्यायाधीश, लाल निशान, गवा, कलम के सिपाही, कारपोरेट और नेपथ्य में  चीख....तमाम चीख.....

वह बूढ़ा अभी भी चुपचाप बैठा था. लड़का इसी तरह ऊटपटांग सोच-विचार रहा था कि इसी बीच एक आटो आकर उसके पास रुका. उसने पूछा- आईटीओ चलना है, कितने पैसे लोगे? आटो वाले ने कहा- 80 रुपये. इतने में बूढ़ा बोला- क्या रे, आईटीओ के 80 रुपये किधर से हुए. ले जा 60 रुपये में या फिर मीटर से जा. आटो वाला मुस्कराया बोला- ठीक है आ जाओ. बूढ़े ने कहा- मुझे भी ले चल, आगे रेसकोर्स छोड़ देना. वो जो अपना सरदार है न, मनमोहन, उसी के बंगले की तरफ मेट्रो स्टेशन है. वहीं तक जाना है. बीस रुपये ले ले. आटो वाला समझ गया कि बुढ़ऊ हैं पक्के घाघ. इनके आगे मेरी नहीं चलेगी. उसने दोनों को अंदर बैठने का इशारा किया. दोनों आटो में बैठ गये. अचानक बूढ़ा लड़के से ज्यादा जवान लगने लगा. उसके हाथ कांप रहे थे, होंट मुस्करा रहे थे. लड़का थोड़ा सहम कर बैठ गया.  

जब आटो ने स्पीड पकड़ ली तो बूढ़ा ड्राइवर से बोला- मनमोहन का घर जानता है न? उसने हां में सर हिलाया. फिर पूछा- सोनिया का? फिर उसने हां में सर हिलाया. बूढ़े ने कहा- जानते हो, ओबामा आने वाला है भारत, और साला कांग्रेस की फटी पड़ी है. आटो वाले ने पूछा- कौन ओबामा? उसने झल्ला कर कहा- अरे साला ओबामा को नहीं जानता. ओबामा मतलब बड़का मामा. वह अमेरिका का राष्ट्रपति है. साला तू खाली फटफटिया मत चलाया कर. कुछ दुनियादारी जान ले तो बच्चों को बताने के काम आएगी. बच्चे तो होंगे ही. उन्हें बताया कर कि इस जमाने में अमेरिका को सारा जहान माई-बाप मानता है. 

अमेरिका इस दुनिया का आखिरी सच है. लड़का सोच रहा था कि यह कितना सच है? बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति हैं और भारत के आंखों के तारे. अचानक उसके दिमाग में ओबामा का भारत दौरा और उस दौरान की अखबारों की सुर्खियां और खबरिया चैनलों पर गूंजने वाला ओबामा राग, सब गूंज गया. उसने सोचा, हां अमेरिका इस दुनिया का आखिरी सच  है. वह जिसे कह दे वह आतंकवादी, जिसे कह दे वह शांतिपुरुष. अमेरिका जिसे अधिकार दे वह अधिकारी, जिसे अपराधी घोषित कर दे वह अपराधी. जिसे जिलाये वह जिये, जिसे मारे वह मरे. जिसे दे वह खाये, जिसे न दे वह कटोरा फैलाये. देखते नहीं, कैसे कतारें लगती हैं? चैरासी के दंगों में न्याय चाहिए, हस्तक्षेप करें ओबामा. गुजरात दंगों में न्याय चाहिए, दबाव बनायें ओबामा. भोपाल गैसकांड में न्याय चाहिए, फरियाद सुनें ओबामा. कश्मीर में विवाद है, विवाद सुलझाएं ओबामा. भारत-पाकिस्तान में साठ साला रगड़ा है, मध्यस्थता करें ओबामा. चीन-जापान में खटपट है, टांग अड़ाएं ओबामा. ईरान भी अब मुंहजोर हो गया है, सबक सिखायें ओबामा. ईराक और अफगान ध्वस्त हो गये, उन्हें भी बसायें ओबामा. तालिबान से खतरा है, उन्हें मार गिरायें ओबामा. पाकिस्तान की हालत नाजुक है, अनुदान बढ़ायें ओबामा. दुनिया में अन्याय है, हाय ओबामा. आयें सबका न्याय करें. वाह ओबामा. कर्ता- र्ता-संहारकर्ता, सब के मालिक ओबामा. जय हो ओबामा. 
तो वे बुढ़ऊ बाबा गलत नहीं थे. यह ऐसा युग है जहां चारों ओर अमेरिका की धूम है. अमेरिका का गुणगान है. चारों तरफ गूंज है. अमेरिका महान है. अमेरिका हम सबकी जान है. 

आटो रेसकोर्स की ओर चला जा रहा था और बूढ़ा धीरे-धीरे मुस्करा रहा था. लड़का घबरा रहा था. 
वह उसकी मनःस्थिति का अंदाजा लगा पाता कि तब तक बूढ़ा ड्राइवर के कंधे पर धीरे से हाथ रखकर बोला- यह जो अपना सोणा सरदार है न! मनमोहन, अरे क्या कहना. बहुत भोला है. इतना भोला, कि वह प्रधानमंत्री होकर भी प्रधानमंत्री नहीं है. यह पहली बार है जब आजाद भारत में प्रधानमंत्री इतना बेचारा हुआ हो. मैंने पिछले साठ साल तो अपनी आंखों से देखे हैं लेकिन प्रधानमंत्री नौकरी करता हो, ऐसा तो न देखा, न सुना. देख बेटे, हो सकता है कि तू भी सरदार हो, पर बुरा मत मानियो. उसके सरदार होने न होने से कोई  फर्क नहीं पड़ता. मैं उस सोणे आदमी को कुछ नहीं कह रहा. मैं तो उस प्रधानमंत्री को कह रहा जिसके राज में लाखों करोड़ का घोटाला हो जाए और वो देश को आश्वासन भी न दे सके कि वे जनता और उसके खून-पसीने की कमाई की रक्षा करेंगे. वह ईमानदार है, यह तो हर कोई मानता है, लेकिन है तो ऐसी सरकार का मुखिया, जो कुर्सी बचाने के लिए नंगा नाचती रहती है. उन्होंने लोकतंत्र की नई इबारत लिख डाली. अब जमहूरियत में बंदों को गिना नहीं खरीदा जाता है...

आटो वाला लड़के को शीशे में देख कर मुस्कराया. अब तक आटो रेसकोर्स पहुंच गया था और आटो वाला इन बातों में कोई दिलचस्पी नहीं ले रहा था. उसे एक ग्राहक निपटाकर दूसरे की ओर लपकने की जल्दी थी. उसकी सारी दिलचस्पी अपने धंधे में थी, ठीक वैसे किसी खिलाड़ी की दिलचस्पी अपने खेल में और खेल कराने वाले की दिलचस्पी अपने ’खेल’ में होती है. भारत एक ऐसा देश है, जहां हमेशा कोई न कोई ’खेल’ होता रहता है. सपेरों का देश अब खिलाडि़यों के देश में बदल गया है. किसी भी खेल को जमकर बढ़ावा दिया जाता है. खिलाड़ी बेखौफ हो-खुलकर खेलते हैं. यह कहानी उसी समय की है जब दिल्ली में एक अंतरारष्ट्रीय खेल खत्म हो चुका था और पैसा ी हजम हो चुका था. ये और बात है कि इस बार चूरन में भी  खेल हो गया और कुछ-एक घाघ खिलाडि़यों का हाजमा कुछ खराब सा हो गया. 

आटो रेसकोर्स मेट्रो स्टेशन के सामने पहुंचा और रुक गया. बूढ़ा उतर कर अपनी जेब से पैसे निकाल रहा था और बगल से गुजर रही एक खूबसूरत लड़की को देख रहा था. ड्राइवर ने चुटकी ली- क्या देख रहो हो जी उधर.. पहले पैसे दे दो मुझे, फिर जाओ उसके साथ. बूढ़ा बोला- मेरी औकात उसके साथ जाने की नहीं है. बहुत पैसे लेगी. तू कमाता है, चाहे तो जा सकता है. ड्राइवर बोला, नहीं साहब! अब वे दिन कहां, जवानी में ी ये सब नहीं कर पाया. मेरे साथियों ने खूब मजा किया. अब तो फंस गया हूं बीबी-बच्चों में. दोनों रेंकने के अंदाज में सर ऊपर करके हंसे और अपने-अपने रास्ते चल दिये. वे दोनों उस लड़की को राह चलते शायद पहली और आखिरी बार देख रहे थे लेकिन आश्वस्त थे कि वह पैसे लेकर चल सकती है. ऐसा वे बचपन से सोच रहे होंगे. यह सब उनकी विरासत है. आखिर वे उसी दिल्ली के हैं, जो हर कुछ मिनट पर एक लड़की के बलात्कार की गवाह बनती है.  

आटो आईटीओ की तरफ पहुंच रहा था और लड़का सोच रहा था कि ये रास्ता कभी खत्म न होता, तो ठीक रहता. क्या पता दफ्तर पहुंचते ही उससे कहा जाय कि देखो, तुम काफी टैलेंटेड  हो. तुम यह काम कर सकते हो. सैकड़ों लोग मर गये हैं. इस पर स्टोरी करनी है. इसमें इमोशंस डालनी है. ऐसी कि लोग खूब दिलचस्पी से पढ़ें. और उसे रिपोर्टिंग के लिए जाना पड़े, जैसा कि पिछले हफ्ते हुआ था. 

उस दिन जब वह घटनास्थल पर पहुंचा तो नजारा काफी खौफनाक था. लाशों के ढेर चारों तरफ पत्रकारों और कैमरों से घिरे थे. मेला जैसा लगा था. टीवी चैनल की एक खूबसूरत सी दिखने वाली रिपोर्टर, जो जरूर सेलिब्रिटी होने के सपने लेकर आयी होगी, फोन पर अपने बास का निर्देश ले रही थी- मजा नहीं आ रहा. बात को समझो मैं क्या कहना चाह रहा हूं. लोगों को इसमें दिलचस्पी नहीं है कि सैकड़ों लोग मर गये हैं. उनको कुछ ऐसा दिखाओ कि वे देखते ही रहें. ह्यूमन एंगल ढूंढो. समझ रही हो न! कुछ रोते हुए लोगों को दिखाओ, जिनका पूरा परिवार साफ हो गया हो, वे रो भी  न पा रहें हों, उनके वर्जन लो, उनसे बात करो कि अब वे क्या करेंगे? कुछ इमोशंस डालो, स्टोरी हिट हो सकती है. फोन कट गया और लड़की ने साथ के कैमरामैन की ओर देखकर गाली दी- ब्लडी बास्टर्ड...साला...कुत्ता...सुबह से नचा रहा है...हरामी. कैमरामैन लड़की के कंधे पर एक धौल जमाकर जोर से हंसा-नाचो..नाचो...झल्लाती क्यों हो? इसी बात का तो पैसा मिलता है. चलो एक और  कोशिश करते हैं. उसने चारों ओर निगाह डाली तो सिहर उठा.

 एक दिन पहले दिल्ली में एक बहुमंजिला इमारत गिर गयी थी और उसमें सैकड़ों लोग दब गये थे. पुलिस ने मलबे से लाशें चुन-चुन कर अस्पतालों में ढेर लगा दिया था. अस्पताल की दीवारों पर चीथड़ों मे बदल चुके चेहरों की तस्वीरें चस्पा थीं ताकि लोग अपने अपने खोये हुए परिजनों को पहचान सकें. लोगों की भीड़  रो-रोकर अपने अपने किसी खो चुके प्रियजन को ढूंढने की कोशिश कर रही थी. इनमें ज्यादातर ऐसे थे जो अपना पूरा परिवार खो चुके थे. दर्जनों की संख्या में पत्रकार उनको घेरे हुए थे और उनसे पूछ रहे थे कि उन्हें कैसा लग रहा है? या वे कैसा महसूस कर रहे हैं? लोग झल्लाकर हट जाते, तो कैमरामैन उनका पीछा करते और चेहरे के हावभाव पकड़ने की कोशिश में उनके मुंह तक कैमरा लगा देते. यह लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नाम पर चल रहे दिल्ली के एक बड़े अस्पताल का नजारा था. 

वह पत्रकारनुमा लड़का भी इसी काम के लिए आया था. अब चूंकि वह खबरिया चैनल की जगह अखबार में नौकरी बजाता है तो उस पर दबाव था कि वह उन चीजों को शब्दों में ढाले. उसने पुलिस और घटनास्थल पर इकट्टा कुछ लोगों से बातचीत की. मरने वालों में ज्यादातर बिहार और बंगाल से आये मजदूर थे. प्याज के दाम बढ़ जाने मात्र से जहां सरकारें बनती बिगड़ती हैं, वहां सैकड़ों मजदूरों के मरने पर बस इतना हुआ कि उनकी मौत की कीमत लगा दी गयी- हर मरने वाले को एक लाख और घायल को पचास हजार का मुआवजा दिया जायेगा. उसने दफ्तर आकर रिपोर्ट बनायी कि ’भूख के बोझ तले दबे सैकड़ों सपने’. 

संपादक महोदय ने देखा और चिल्ला पड़े. यह तुम क्या कर रहे हो? मुझे यह नहीं चाहिए. कौन मरा, क्यों मरा, क्या वजह है, कौन जिम्मेदार है, इसमे किसकी दिलचस्पी है? भाषण नहीं चाहिए. थोड़ी इमोशंस डालो..ह्यूमन एंगल. डिटेलिंग करो. दिलचस्प स्टोरी बनाओ ताकि लोग पढ़ें. जाओ फिर से जाओ. वह फिर से गया और शाम को आकर एक फीचर लिखा. वह लोगों की मौत का उत्सव था. इस उत्सव पर संपादक खूब खुश हुआ. हां, बस यही तो चाहता था मैं. अब तुम थोड़ा-थोड़ा लाइन पकड़ने लगे हो. 

वह रोज दफ्तर से घर लौटता और रात र परेशान रहता कि आने वाले दिन कितने मुश्किल हैं? वह उन सब बातों को कह नहीं सकता जो उसे लगता है कहनी ही चाहिए और इस बात से उसे इतनी बेचैनी होती है कि वह रो पड़ता है और सोचता है कि उसे कोई नौकरी नहीं करनी चाहिए. नौकरी करता हुआ आदमी पालतू कुत्ते से ज्यादा कुछ नहीं है. नौकरी गुलामी सरीखी है. वहां आप कोल्हू के बैल हैं. आपको हांकने वाले सिर्फ कोल्हू के इर्द-गिर्द आपका घूमना पसंद करते हैं. 

आटो चल रहा था और लड़का सोच रहा था कि हो सकता है कि आफिस पहुंच कर उसे ओबामा चालीसा लिखने को कहा जाय. उसे चलते हुए आटो की सरसराहट में अमेरिका राग सुनाई पड़ रहा है. यह उसे बिल्कुल आश्चर्यजनक नहीं लग रहा, क्योंकि यह समय ही ओबामा-अमेरिकामय हो गया है. दिल्ली के गलियारे गलियारे में ओबामा चर्चा जारी है. मीडिया में ओबामा सबसे खूबसूरत नारा है. सुबह उठकर आप सबसे ज्यादा बातें ओबामा के बारे में सुन-देख और पढ़ सकते हैं. उसके दफ्तर में भी कल की मीटिंग में यह तय हो चुका है कि अब अगले एक हफ्ते तक ओबामा के सिवा कुछ नहीं छपेगा. उसने एक पत्रिका निकाली लेकिन उसे पढ़ा नहीं, क्योंकि उसमें कुछ कविताएं लिखीं थीं जो उसे काफी विचलित कर सकती थीं. न चाहते हुए भी  कविता की पंक्तियां दिमाग में घूम गयीं- वे कहते हैं आजाद हूं मैं/ मैं कहता हूं कि घुटता हूं/ बंधा-बंधा जंजीरों में/बस एक कामना मुक्ति की/ सांसों की गिरहें खुल जायें/ फिर जियें अन्यथा मर जायें....

उसके झोले में अखबारों की दो-एक कतरन थी जिसे उसने निकाल कर फेंकना चाहा, लेकिन जाने क्या सोचकर वापस झोले में रख लिया. इनमें से एक कतरन देश र के उन बच्चों के बारे में थी जिन्हें रविवार की छुठ्टी अच्छी नहीं लगती क्योंकि उस दिन उन्हें खाना नहीं मिलता. पढ़ने की जगह से उनका रिश्ता सिर्फ रोटी का रिश्ता है. यह कटिंग उसने कल अपने बाॅस को दिखायी थी और उन्होंने कंधा उचका कर कहा- अरे...छोड़ो, यह सब, कौन पढ़ता है इसे.... 

वह दफ्तर पहुंचा तो मीटिंग चल रही थी और योजना बन रही थी कि कैसे-कैसे क्या-क्या देना है कि पाठक पढ़कर अभिभूत हो उठें. वह भी  शामिल हो गया. अगले दिन बराक ओबामा को भारत में आना था. हां, अमेरिका का राष्ट्रपति बराक ओबामा. मीटिंग में तय पाया गया कि सब अलग-अलग बातों पर निगाह रखेंगे. ओबामा की गाड़ी, ओबामा का होटल, ओबामा का भोजन, पहनावा, चाल-ढाल, उनकी पत्नी, उनका जीवन, उनकी उपलब्धि, वे कैसे शीर्ष तक पहुंचे. उससे कहा गया कि वह लिखेगा कि ओबामा भारतीय युवाओं में क्यों एक आदर्शपुरुष की तरह लोकप्रिय हैं. वह बहुत देर तक बैठा सोचता रहा. उसका सर चकरा रहा था. वह वहां से उठकर भाग जाना चाहता था. सांसें भारी थीं. उसे लगता था कि वह कहीं अंधेरी कोठरी में कई सदियों से बंद है जहां कभी  हवा नहीं जाती. उसकी आंखों के आगे धुंध सी छा गयी थी. सामने कंप्यूटर की स्क्रीन धुंधली सी दिख रही थी. उसके वालपेपर पर एक सूरजमुखी का फूल था जो आज उसे काला दिख रहा था. थोड़ी देर बाद घूमते हुए बास उधर आया. पूछा- क्यों जी सर लटका के क्यों बैठे हो? उसने कहा- सर चक्कर आ रहा है. मैं काम नहीं कर सकता. उन्होंने पूछा-क्या हुआ? 
- सर, पता नहीं... 
उन्होंने कहा-ठीक है थोड़ा रिलैक्स हो लो. 
- जी मैं बैठ नहीं पाउंगा. जाना चाहता हूं. 
- अरे यार अगला एक हफ्ता कितना जरूरी है? अंदाजा है तुमको? चलो कोशिश करो. 
वह थोड़ी देर और बैठा रहा फिर बोला- सर मैं जा रहा हूं. 
वह चला गया. घर पहुंच कर शाम को उसने फोन किया सर टाइफाइड हो गया है. बेड रेस्ट लेना होगा. 
अगले एक हफ्ते तक वह घर में रहा और रोज सुबह अखबारों में पढ़ता रहा- भारत कल की महाशक्ति... ओबामा ने माना भारत को महाशक्ति...भारत बना सुपर पावर... उस दौरान विदर् के बारे में कोई खबर नहीं छप रही थी. इस एक हफ्ते दिल्ली के अखबारों में रोज छपने वाली बलात्कार की खबरें भी नदारद थीं. उसने अपनी छुट्टी एक हफ्ते और बढ़वा ली. उसे लग रहा है कि उसके हाथ-पांव जंजीरों में जकड़े हुए हैं. 

वह अब नौकरी के बारे में नहीं सोचता. अब वह हरदम अपनी आजादी के बारे में ज्यादा सोचता है और हर सुबह उठकर अखबारों में खोजता है कि आजादी की आकांक्षा रखने किन किन लोगों को सजा सुनायी गयी है.