Wednesday, May 30, 2012

जाको राखे अमरीका


वह अमेरिकी दूतावास के सामने खड़ा आटो का इंतजार कर रहा था और सोच रहा था कि दिल्ली में अमेरिकी दूतावास होने की क्या जरूरत है? सुबह ही उसने एक विलुप्तप्राय से अखबार में एक अमेरिकी स्कालर का बयान पढ़ा था, जिसमें उसने कहा था कि वह आया था गांधी का भारत देखने, लेकिन यहां सी-ग्रेड का अमेरिका देख रहा है. सुबह से उसके दिमाग में यही एक बात गूंज रही थी कि इंडिया दैट इज भारत, दैट इज सी ग्रेड अमेरिका... दूतावास के सामने दूर तक लंबी लाइन लगी थी. ये लोग अमेरिका जाने के लिए वीजा बनवाने की कतार में खड़े थे, जैसे दिल्ली से बिहार जाने वाली ट्रेन के लिए टिकट काउंटर पर लाइन लगती है. 

वह सोच रहा था कि भारत में जब शहर-दर-शहर, गली-गली अमेरिका है और फैलता जा रहा है तो अलग से अमेरिकी दूतावास की जरूरत क्या थी. वैसे है तो यह सिर्फ एक दफ्तर, जहां से अमेरिका संबंधी प्रशासनिक कामकाज होता है, लेकिन वीजा भी तो भारतीय दफ्तरों से ही मिल सकता है. अब तक वीजा चाहने वालों की लाइन और लंबी हो गयी थी. लग रहा था कि अब वहां की जगह छोटी पड़ जायेगी. न सिर्फ दिल्ली में अमेरिकी दूतावास के लिए, बल्कि पूरे भारत में अमेरिकी विस्तार के लिए. यह बात उसे थोड़ी परेशान भी कर गयी कि अमेरिका के विस्तार के लिए बेचारा भारत कितना छोटा है? 

लोग कतारों में खड़े थे और अंग्रेजी में बातें कर रहे थे. वह चुपचाप खड़ा-खड़ा कुढ़ रहा था कि काश मुझे भी अंग्रेजी आती तो इन लोगों से पूछता कि वे अमेरिका के लिए पागल क्यों हैं? उन्हें हिंदी आती होगी, वह ऐसी आशा नहीं करता. 

भागम-भाग और अफरा-तफरी जैसी स्थिति थी. उससे थोड़ी दूर पर एक कम उम्र की औरत गोद में अपने एक या दो साल के बच्चे को लिए किसी मर्द से बातें कर रही थी. बच्चा कुछ कहना चाह रहा था. वह बार-बार उसका मुंह पकड़ कर अपनी ओर घुमाने की कोशिश करता तो वह उसे एक चाकलेट पकड़ा देती. बच्चा हर बार चाकलेट फेंक दे रहा था. जब उसने तीसरी बार चाकलेट फेंक दी तो स्त्री थोड़ी दूर किनारे पर खड़ी कार के पास गयी. कार का दरवाजा खोला और बच्चे को अंदर बंद कर दिया. अब सारी चिकचिक खत्म. बच्चा गाड़ी के अंदर शीशे से चिपक कर चीख रहा था. उसकी मां ने उसकी ओर पीठ कर ली और बातें करने में मग्न हो गयी. वह बातचीत के बीच-बीच में अपने बाल झटक रही थी. उसने एक झीनी सी मिनी स्कर्ट पहन रखी थी. उसे याद नहीं आ रहा था कि आज से पहले उसने इतनी भद्दी स्त्री कभी देखी हो. 

उसे आटो पकड़ कर आईटीओ पहुंचना था. वहां वह एक ’आंदोलनकारी’ अखबार के दफ्तर में काम करता है, लेकिन पत्रकार नहीं है. वह अखबार के दफ्तर में नौकरी करता है और निश्चित तौर पर पत्रकार नहीं है. उसके दफ्तर में कोई भी पत्रकार नहीं है. वह डर रहा है कि अगर उसे देर हुई तो दफ्तर से बॉस का फोन आ सकता है, जो न सिर्फ देर होने के लिए डांटेगा, बल्कि ’अगर काम न कर पाना हो नौकरी छोड़ दो’ जैसी सलाह भी दे डालेगा. 

 वह खड़ा ऐसा सोच रहा था और उसके ठीक बगल एक बूढ़ा आदमी बैठा था. वह शायद खड़ा नहीं हो सकता था. आम तौर पर जैसी बूढ़ों की आदत होती है कि वे चुप नहीं बैठते और हर किसी को कोई न कोई सलाह देते रहते हैं, इसके एकदम विपरीत वह चुपचाप था. उसकी यह चुप्पी काफी परेशान करने वाली थी क्योंकि वहां सिर्फ तेज रफ्तार गाडि़यों के गुजरने की सांय सांय ही सुनाई देती थी, जिसमें कोई भी व्यक्ति डर सकता था. इस दौरान वह सोच रहा था कि मेरे बाबा होते तो क्या-क्या सलाह दे डालते. वह सोच रहा था कि काश इस भयानक शहर में लोग एक दूसरे को पहचानते होते. 

वह आते जाते वाहनों को बेपरवाही से देख रहा था. कौन जाने किस गाड़ी में किसी लड़की का पांच-सात लोग मिलकर बलात्कार कर रहे हों, जैसा ठीक एक दिन पहले हो चुका था और आज उसने अखबार में यह खबर पढ़ी थी. या फिर किसी गाड़ी में किसी पूंजीपति की दलाली करने वाली महिला किसी बहुत बड़े पत्रकार से फोन पर बात करती हुई जा रही हो और उसका ड्राइवर इस बातचीत में कोई रुचि न ले रहा हो. या मजे ले रहा हो और सोच रहा हो कि देश का बोझ न तो मेरे सर पर रखा है और न ही वे लाखों करोड़  मेरे पिता जी के जेब से आये हैं जो घोटाले में खाये जायेंगे. या फिर उसे अपने ड्राइवर होने का बोध इस हद तक हो कि वह भाई- भतीजावादी पूंजीवाद में नेता-पत्रकार और कारपोरेट के बीच के गठबंधन में कोई दखल देना अपने अधिकार और पहुंच से बाहर की बात समझता हो. बहुत मुमकिन यह भी है कि वह सब समझ रहा हो, कुढ़ रहा हो मगर मालिक की तरफ से की जाने वाली देशसेवा के खिलाफ कुछ बोलने की हिम्मत न जुटा पा रहा हो. कौन जाने कि वह भी एक समझदार और पढ़े लिखे भारतीय की तरह सोचता हो, कि दुनिया जाये भाड़ में, अपने राम को क्या लेना? 

वह इस शहर में चार महीने पहले पहुंचा है और अब लौटने के बारे में सोच रहा है. पर मुश्किल यह है कि रोटी उसे गांव लौटने नहीं दे रही और यह शहर उसे यहां रहने नहीं दे रहा. बड़े-बड़े बंगले हैं. चैड़ी-चैड़ी सड़कें  हैं. सनसनाती गाडि़यां हैं. वीरान से मंजर हैं. अगर आप सहम कर मर नहीं जाते, तो गारंटी है कि घुट-घुट कर जी सकते हैं. उसकी प्रेमिका, जो उसके साथ दिल्ली में नहीं है,  उसे बहुत समझदार और इस दुनिया के कुछ-एक नेकदिल इंसानों में से एक मानती है. पर शायद ऐसा सोचने वाली वह इस दुनिया की अकेली प्राणी है. जब वह आने लगा था तो उससे वादा करके आया था कि शहर से नौकरी लेकर वह जल्द ही लौटेगा और उससे शादी करेगा. 

वह इस महानगर में खो गया है और उसे बारहा डर लगता है कि वह खोखला हो रहा है और अपनी प्रेमिका को अपने भीतर महफूज नहीं रख पायेगा. उसे यह भी पता है कि वह रोज रात में देर तक जागती है. जब सभी घर वाले सो जाते हैं तो वह सिसकियों का गला घोंट कर अपने तकिये भिगोया करती है. यह सब सोच कर अक्सर वह दुःखी हो जाता है. जब भी उसे रुलाई आती है और तमाम प्रयत्नों के बाद भी नहीं रुकती तो वह खुल कर रो लेता है. लेकिन यह बात उसके अलावा इस दुनिया में कोई नहीं जानता. वह कभी कभी कविताएं लिखता है जो कविता कम, उसकी प्रेमिका के प्रति उसका माफीनामा ही अधिक होती है. फिलहाल वह उसके लिए इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकता, क्योंकि इससे ज्यादा उसके पास समय नहीं है. 

वह लोगों से बात करने में हिचकता है. उसकी समस्या है कि जब वह किसी अंग्रेजीनुमा हिंदुस्तानी को देखता है तो सोचता है कि उससे बात कैसे करूं? कहीं वह अंग्रेजी में बोलेगा तो? वह तो मुझे आती नहीं. और तमाम मंथन के बाद वह उससे बात नहीं करता. हर ऐसी घटना के बाद उसे एक चुक-चुके आरएसएस कार्यकर्ता की एक बात याद आती है जिन्होंने एक बार मजाक में कहा था कि भारत में रहना और कमाना खाना है, इज्जत पानी है तो अंग्रेजी पढ़ो. मैकाले धर्म ग्रहण कर लो. यह मसला भाषा का नहीं, मैकाले होने का है...
मजाक में कही गयी यह बात उसे अपनी नियति लगती है. 

दिल्ली किसी को भी आसानी से आंख मूंद कर चलना सिखा देती है. यहां हर व्यक्ति सड़कों पर आंख मूंद कर चलता है और चलता रहता है. चैड़े हाइवे पर तमाम युवा सपनों का बलात्कार होता है, जिसे लोग अपने-अपने घरों में टेलीविजन की आंख से देख लेते हैं. इस शहर ने दरवाजों के सामने सन्नाटे पैदा कर लिये हैं और कमरों में कृत्रिम सा संसार बसा लिया है. इन गलियों में तमाम सपनों की चीख नक्कारखाने में तूती की तरह गुम हो जाती है. उनकी बदहाल सूरतें खेलकूद वाले पोस्टरों से ढंक दी जाती हैं ताकि देश  काफी खूबसूरत दिखे. अंकल सैम सिर्फ पैकेट की तारीफ करते हैं. अंदर क्या भरा है, इससे उनको कोई सरोकार नहीं. दिल्ली की गलियों में कहीं भी आंख-कान खोल कर खड़े हो जायें तो मिर्चपुर से दंतेवाड़ा तक सपनों के निकलते जनाजे दिखाई पड़ते हैं. लोकतंत्र सीना चौड़ा किए रेसकोर्स पर दलीलें दे रहा है और और तमाम इरोम शर्मिलाएं जंतर-मंतर आ-आकर वापस लौट जाती हैं. वे एक-एक दशक से गांधीवाद का पुछल्ला पकड़े भूख हड़ताल पर हैं. उन्हें यह भ्रम है कि एक दिन विश्व का सबसे बड़ा स्वयं-भू  लोकतंत्र उन्हें कानूनी बलात्कारों से मुक्ति दिला देगा. वह अपनी सेना को युवतियों का बलात्कार करने से रोक लेगा...

उसने अपने जेहन में दिल्ली की तस्वीर उतार ली है, जो दफ्तर जाकर फिलहाल किसी से नहीं बतायेगा. अपने बास से भी नहीं, वरना उसकी नौकरी जा सकती है. तस्वीर एकदम सुर्ख है. उस पर लाल और काले रंग में फिल्म की शुरूआत होने की तरह एक डिजाल्व चल रहा है- नेता, मंत्री, न्यायाधीश, लाल निशान, गवा, कलम के सिपाही, कारपोरेट और नेपथ्य में  चीख....तमाम चीख.....

वह बूढ़ा अभी भी चुपचाप बैठा था. लड़का इसी तरह ऊटपटांग सोच-विचार रहा था कि इसी बीच एक आटो आकर उसके पास रुका. उसने पूछा- आईटीओ चलना है, कितने पैसे लोगे? आटो वाले ने कहा- 80 रुपये. इतने में बूढ़ा बोला- क्या रे, आईटीओ के 80 रुपये किधर से हुए. ले जा 60 रुपये में या फिर मीटर से जा. आटो वाला मुस्कराया बोला- ठीक है आ जाओ. बूढ़े ने कहा- मुझे भी ले चल, आगे रेसकोर्स छोड़ देना. वो जो अपना सरदार है न, मनमोहन, उसी के बंगले की तरफ मेट्रो स्टेशन है. वहीं तक जाना है. बीस रुपये ले ले. आटो वाला समझ गया कि बुढ़ऊ हैं पक्के घाघ. इनके आगे मेरी नहीं चलेगी. उसने दोनों को अंदर बैठने का इशारा किया. दोनों आटो में बैठ गये. अचानक बूढ़ा लड़के से ज्यादा जवान लगने लगा. उसके हाथ कांप रहे थे, होंट मुस्करा रहे थे. लड़का थोड़ा सहम कर बैठ गया.  

जब आटो ने स्पीड पकड़ ली तो बूढ़ा ड्राइवर से बोला- मनमोहन का घर जानता है न? उसने हां में सर हिलाया. फिर पूछा- सोनिया का? फिर उसने हां में सर हिलाया. बूढ़े ने कहा- जानते हो, ओबामा आने वाला है भारत, और साला कांग्रेस की फटी पड़ी है. आटो वाले ने पूछा- कौन ओबामा? उसने झल्ला कर कहा- अरे साला ओबामा को नहीं जानता. ओबामा मतलब बड़का मामा. वह अमेरिका का राष्ट्रपति है. साला तू खाली फटफटिया मत चलाया कर. कुछ दुनियादारी जान ले तो बच्चों को बताने के काम आएगी. बच्चे तो होंगे ही. उन्हें बताया कर कि इस जमाने में अमेरिका को सारा जहान माई-बाप मानता है. 

अमेरिका इस दुनिया का आखिरी सच है. लड़का सोच रहा था कि यह कितना सच है? बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति हैं और भारत के आंखों के तारे. अचानक उसके दिमाग में ओबामा का भारत दौरा और उस दौरान की अखबारों की सुर्खियां और खबरिया चैनलों पर गूंजने वाला ओबामा राग, सब गूंज गया. उसने सोचा, हां अमेरिका इस दुनिया का आखिरी सच  है. वह जिसे कह दे वह आतंकवादी, जिसे कह दे वह शांतिपुरुष. अमेरिका जिसे अधिकार दे वह अधिकारी, जिसे अपराधी घोषित कर दे वह अपराधी. जिसे जिलाये वह जिये, जिसे मारे वह मरे. जिसे दे वह खाये, जिसे न दे वह कटोरा फैलाये. देखते नहीं, कैसे कतारें लगती हैं? चैरासी के दंगों में न्याय चाहिए, हस्तक्षेप करें ओबामा. गुजरात दंगों में न्याय चाहिए, दबाव बनायें ओबामा. भोपाल गैसकांड में न्याय चाहिए, फरियाद सुनें ओबामा. कश्मीर में विवाद है, विवाद सुलझाएं ओबामा. भारत-पाकिस्तान में साठ साला रगड़ा है, मध्यस्थता करें ओबामा. चीन-जापान में खटपट है, टांग अड़ाएं ओबामा. ईरान भी अब मुंहजोर हो गया है, सबक सिखायें ओबामा. ईराक और अफगान ध्वस्त हो गये, उन्हें भी बसायें ओबामा. तालिबान से खतरा है, उन्हें मार गिरायें ओबामा. पाकिस्तान की हालत नाजुक है, अनुदान बढ़ायें ओबामा. दुनिया में अन्याय है, हाय ओबामा. आयें सबका न्याय करें. वाह ओबामा. कर्ता- र्ता-संहारकर्ता, सब के मालिक ओबामा. जय हो ओबामा. 
तो वे बुढ़ऊ बाबा गलत नहीं थे. यह ऐसा युग है जहां चारों ओर अमेरिका की धूम है. अमेरिका का गुणगान है. चारों तरफ गूंज है. अमेरिका महान है. अमेरिका हम सबकी जान है. 

आटो रेसकोर्स की ओर चला जा रहा था और बूढ़ा धीरे-धीरे मुस्करा रहा था. लड़का घबरा रहा था. 
वह उसकी मनःस्थिति का अंदाजा लगा पाता कि तब तक बूढ़ा ड्राइवर के कंधे पर धीरे से हाथ रखकर बोला- यह जो अपना सोणा सरदार है न! मनमोहन, अरे क्या कहना. बहुत भोला है. इतना भोला, कि वह प्रधानमंत्री होकर भी प्रधानमंत्री नहीं है. यह पहली बार है जब आजाद भारत में प्रधानमंत्री इतना बेचारा हुआ हो. मैंने पिछले साठ साल तो अपनी आंखों से देखे हैं लेकिन प्रधानमंत्री नौकरी करता हो, ऐसा तो न देखा, न सुना. देख बेटे, हो सकता है कि तू भी सरदार हो, पर बुरा मत मानियो. उसके सरदार होने न होने से कोई  फर्क नहीं पड़ता. मैं उस सोणे आदमी को कुछ नहीं कह रहा. मैं तो उस प्रधानमंत्री को कह रहा जिसके राज में लाखों करोड़ का घोटाला हो जाए और वो देश को आश्वासन भी न दे सके कि वे जनता और उसके खून-पसीने की कमाई की रक्षा करेंगे. वह ईमानदार है, यह तो हर कोई मानता है, लेकिन है तो ऐसी सरकार का मुखिया, जो कुर्सी बचाने के लिए नंगा नाचती रहती है. उन्होंने लोकतंत्र की नई इबारत लिख डाली. अब जमहूरियत में बंदों को गिना नहीं खरीदा जाता है...

आटो वाला लड़के को शीशे में देख कर मुस्कराया. अब तक आटो रेसकोर्स पहुंच गया था और आटो वाला इन बातों में कोई दिलचस्पी नहीं ले रहा था. उसे एक ग्राहक निपटाकर दूसरे की ओर लपकने की जल्दी थी. उसकी सारी दिलचस्पी अपने धंधे में थी, ठीक वैसे किसी खिलाड़ी की दिलचस्पी अपने खेल में और खेल कराने वाले की दिलचस्पी अपने ’खेल’ में होती है. भारत एक ऐसा देश है, जहां हमेशा कोई न कोई ’खेल’ होता रहता है. सपेरों का देश अब खिलाडि़यों के देश में बदल गया है. किसी भी खेल को जमकर बढ़ावा दिया जाता है. खिलाड़ी बेखौफ हो-खुलकर खेलते हैं. यह कहानी उसी समय की है जब दिल्ली में एक अंतरारष्ट्रीय खेल खत्म हो चुका था और पैसा ी हजम हो चुका था. ये और बात है कि इस बार चूरन में भी  खेल हो गया और कुछ-एक घाघ खिलाडि़यों का हाजमा कुछ खराब सा हो गया. 

आटो रेसकोर्स मेट्रो स्टेशन के सामने पहुंचा और रुक गया. बूढ़ा उतर कर अपनी जेब से पैसे निकाल रहा था और बगल से गुजर रही एक खूबसूरत लड़की को देख रहा था. ड्राइवर ने चुटकी ली- क्या देख रहो हो जी उधर.. पहले पैसे दे दो मुझे, फिर जाओ उसके साथ. बूढ़ा बोला- मेरी औकात उसके साथ जाने की नहीं है. बहुत पैसे लेगी. तू कमाता है, चाहे तो जा सकता है. ड्राइवर बोला, नहीं साहब! अब वे दिन कहां, जवानी में ी ये सब नहीं कर पाया. मेरे साथियों ने खूब मजा किया. अब तो फंस गया हूं बीबी-बच्चों में. दोनों रेंकने के अंदाज में सर ऊपर करके हंसे और अपने-अपने रास्ते चल दिये. वे दोनों उस लड़की को राह चलते शायद पहली और आखिरी बार देख रहे थे लेकिन आश्वस्त थे कि वह पैसे लेकर चल सकती है. ऐसा वे बचपन से सोच रहे होंगे. यह सब उनकी विरासत है. आखिर वे उसी दिल्ली के हैं, जो हर कुछ मिनट पर एक लड़की के बलात्कार की गवाह बनती है.  

आटो आईटीओ की तरफ पहुंच रहा था और लड़का सोच रहा था कि ये रास्ता कभी खत्म न होता, तो ठीक रहता. क्या पता दफ्तर पहुंचते ही उससे कहा जाय कि देखो, तुम काफी टैलेंटेड  हो. तुम यह काम कर सकते हो. सैकड़ों लोग मर गये हैं. इस पर स्टोरी करनी है. इसमें इमोशंस डालनी है. ऐसी कि लोग खूब दिलचस्पी से पढ़ें. और उसे रिपोर्टिंग के लिए जाना पड़े, जैसा कि पिछले हफ्ते हुआ था. 

उस दिन जब वह घटनास्थल पर पहुंचा तो नजारा काफी खौफनाक था. लाशों के ढेर चारों तरफ पत्रकारों और कैमरों से घिरे थे. मेला जैसा लगा था. टीवी चैनल की एक खूबसूरत सी दिखने वाली रिपोर्टर, जो जरूर सेलिब्रिटी होने के सपने लेकर आयी होगी, फोन पर अपने बास का निर्देश ले रही थी- मजा नहीं आ रहा. बात को समझो मैं क्या कहना चाह रहा हूं. लोगों को इसमें दिलचस्पी नहीं है कि सैकड़ों लोग मर गये हैं. उनको कुछ ऐसा दिखाओ कि वे देखते ही रहें. ह्यूमन एंगल ढूंढो. समझ रही हो न! कुछ रोते हुए लोगों को दिखाओ, जिनका पूरा परिवार साफ हो गया हो, वे रो भी  न पा रहें हों, उनके वर्जन लो, उनसे बात करो कि अब वे क्या करेंगे? कुछ इमोशंस डालो, स्टोरी हिट हो सकती है. फोन कट गया और लड़की ने साथ के कैमरामैन की ओर देखकर गाली दी- ब्लडी बास्टर्ड...साला...कुत्ता...सुबह से नचा रहा है...हरामी. कैमरामैन लड़की के कंधे पर एक धौल जमाकर जोर से हंसा-नाचो..नाचो...झल्लाती क्यों हो? इसी बात का तो पैसा मिलता है. चलो एक और  कोशिश करते हैं. उसने चारों ओर निगाह डाली तो सिहर उठा.

 एक दिन पहले दिल्ली में एक बहुमंजिला इमारत गिर गयी थी और उसमें सैकड़ों लोग दब गये थे. पुलिस ने मलबे से लाशें चुन-चुन कर अस्पतालों में ढेर लगा दिया था. अस्पताल की दीवारों पर चीथड़ों मे बदल चुके चेहरों की तस्वीरें चस्पा थीं ताकि लोग अपने अपने खोये हुए परिजनों को पहचान सकें. लोगों की भीड़  रो-रोकर अपने अपने किसी खो चुके प्रियजन को ढूंढने की कोशिश कर रही थी. इनमें ज्यादातर ऐसे थे जो अपना पूरा परिवार खो चुके थे. दर्जनों की संख्या में पत्रकार उनको घेरे हुए थे और उनसे पूछ रहे थे कि उन्हें कैसा लग रहा है? या वे कैसा महसूस कर रहे हैं? लोग झल्लाकर हट जाते, तो कैमरामैन उनका पीछा करते और चेहरे के हावभाव पकड़ने की कोशिश में उनके मुंह तक कैमरा लगा देते. यह लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नाम पर चल रहे दिल्ली के एक बड़े अस्पताल का नजारा था. 

वह पत्रकारनुमा लड़का भी इसी काम के लिए आया था. अब चूंकि वह खबरिया चैनल की जगह अखबार में नौकरी बजाता है तो उस पर दबाव था कि वह उन चीजों को शब्दों में ढाले. उसने पुलिस और घटनास्थल पर इकट्टा कुछ लोगों से बातचीत की. मरने वालों में ज्यादातर बिहार और बंगाल से आये मजदूर थे. प्याज के दाम बढ़ जाने मात्र से जहां सरकारें बनती बिगड़ती हैं, वहां सैकड़ों मजदूरों के मरने पर बस इतना हुआ कि उनकी मौत की कीमत लगा दी गयी- हर मरने वाले को एक लाख और घायल को पचास हजार का मुआवजा दिया जायेगा. उसने दफ्तर आकर रिपोर्ट बनायी कि ’भूख के बोझ तले दबे सैकड़ों सपने’. 

संपादक महोदय ने देखा और चिल्ला पड़े. यह तुम क्या कर रहे हो? मुझे यह नहीं चाहिए. कौन मरा, क्यों मरा, क्या वजह है, कौन जिम्मेदार है, इसमे किसकी दिलचस्पी है? भाषण नहीं चाहिए. थोड़ी इमोशंस डालो..ह्यूमन एंगल. डिटेलिंग करो. दिलचस्प स्टोरी बनाओ ताकि लोग पढ़ें. जाओ फिर से जाओ. वह फिर से गया और शाम को आकर एक फीचर लिखा. वह लोगों की मौत का उत्सव था. इस उत्सव पर संपादक खूब खुश हुआ. हां, बस यही तो चाहता था मैं. अब तुम थोड़ा-थोड़ा लाइन पकड़ने लगे हो. 

वह रोज दफ्तर से घर लौटता और रात र परेशान रहता कि आने वाले दिन कितने मुश्किल हैं? वह उन सब बातों को कह नहीं सकता जो उसे लगता है कहनी ही चाहिए और इस बात से उसे इतनी बेचैनी होती है कि वह रो पड़ता है और सोचता है कि उसे कोई नौकरी नहीं करनी चाहिए. नौकरी करता हुआ आदमी पालतू कुत्ते से ज्यादा कुछ नहीं है. नौकरी गुलामी सरीखी है. वहां आप कोल्हू के बैल हैं. आपको हांकने वाले सिर्फ कोल्हू के इर्द-गिर्द आपका घूमना पसंद करते हैं. 

आटो चल रहा था और लड़का सोच रहा था कि हो सकता है कि आफिस पहुंच कर उसे ओबामा चालीसा लिखने को कहा जाय. उसे चलते हुए आटो की सरसराहट में अमेरिका राग सुनाई पड़ रहा है. यह उसे बिल्कुल आश्चर्यजनक नहीं लग रहा, क्योंकि यह समय ही ओबामा-अमेरिकामय हो गया है. दिल्ली के गलियारे गलियारे में ओबामा चर्चा जारी है. मीडिया में ओबामा सबसे खूबसूरत नारा है. सुबह उठकर आप सबसे ज्यादा बातें ओबामा के बारे में सुन-देख और पढ़ सकते हैं. उसके दफ्तर में भी कल की मीटिंग में यह तय हो चुका है कि अब अगले एक हफ्ते तक ओबामा के सिवा कुछ नहीं छपेगा. उसने एक पत्रिका निकाली लेकिन उसे पढ़ा नहीं, क्योंकि उसमें कुछ कविताएं लिखीं थीं जो उसे काफी विचलित कर सकती थीं. न चाहते हुए भी  कविता की पंक्तियां दिमाग में घूम गयीं- वे कहते हैं आजाद हूं मैं/ मैं कहता हूं कि घुटता हूं/ बंधा-बंधा जंजीरों में/बस एक कामना मुक्ति की/ सांसों की गिरहें खुल जायें/ फिर जियें अन्यथा मर जायें....

उसके झोले में अखबारों की दो-एक कतरन थी जिसे उसने निकाल कर फेंकना चाहा, लेकिन जाने क्या सोचकर वापस झोले में रख लिया. इनमें से एक कतरन देश र के उन बच्चों के बारे में थी जिन्हें रविवार की छुठ्टी अच्छी नहीं लगती क्योंकि उस दिन उन्हें खाना नहीं मिलता. पढ़ने की जगह से उनका रिश्ता सिर्फ रोटी का रिश्ता है. यह कटिंग उसने कल अपने बाॅस को दिखायी थी और उन्होंने कंधा उचका कर कहा- अरे...छोड़ो, यह सब, कौन पढ़ता है इसे.... 

वह दफ्तर पहुंचा तो मीटिंग चल रही थी और योजना बन रही थी कि कैसे-कैसे क्या-क्या देना है कि पाठक पढ़कर अभिभूत हो उठें. वह भी  शामिल हो गया. अगले दिन बराक ओबामा को भारत में आना था. हां, अमेरिका का राष्ट्रपति बराक ओबामा. मीटिंग में तय पाया गया कि सब अलग-अलग बातों पर निगाह रखेंगे. ओबामा की गाड़ी, ओबामा का होटल, ओबामा का भोजन, पहनावा, चाल-ढाल, उनकी पत्नी, उनका जीवन, उनकी उपलब्धि, वे कैसे शीर्ष तक पहुंचे. उससे कहा गया कि वह लिखेगा कि ओबामा भारतीय युवाओं में क्यों एक आदर्शपुरुष की तरह लोकप्रिय हैं. वह बहुत देर तक बैठा सोचता रहा. उसका सर चकरा रहा था. वह वहां से उठकर भाग जाना चाहता था. सांसें भारी थीं. उसे लगता था कि वह कहीं अंधेरी कोठरी में कई सदियों से बंद है जहां कभी  हवा नहीं जाती. उसकी आंखों के आगे धुंध सी छा गयी थी. सामने कंप्यूटर की स्क्रीन धुंधली सी दिख रही थी. उसके वालपेपर पर एक सूरजमुखी का फूल था जो आज उसे काला दिख रहा था. थोड़ी देर बाद घूमते हुए बास उधर आया. पूछा- क्यों जी सर लटका के क्यों बैठे हो? उसने कहा- सर चक्कर आ रहा है. मैं काम नहीं कर सकता. उन्होंने पूछा-क्या हुआ? 
- सर, पता नहीं... 
उन्होंने कहा-ठीक है थोड़ा रिलैक्स हो लो. 
- जी मैं बैठ नहीं पाउंगा. जाना चाहता हूं. 
- अरे यार अगला एक हफ्ता कितना जरूरी है? अंदाजा है तुमको? चलो कोशिश करो. 
वह थोड़ी देर और बैठा रहा फिर बोला- सर मैं जा रहा हूं. 
वह चला गया. घर पहुंच कर शाम को उसने फोन किया सर टाइफाइड हो गया है. बेड रेस्ट लेना होगा. 
अगले एक हफ्ते तक वह घर में रहा और रोज सुबह अखबारों में पढ़ता रहा- भारत कल की महाशक्ति... ओबामा ने माना भारत को महाशक्ति...भारत बना सुपर पावर... उस दौरान विदर् के बारे में कोई खबर नहीं छप रही थी. इस एक हफ्ते दिल्ली के अखबारों में रोज छपने वाली बलात्कार की खबरें भी नदारद थीं. उसने अपनी छुट्टी एक हफ्ते और बढ़वा ली. उसे लग रहा है कि उसके हाथ-पांव जंजीरों में जकड़े हुए हैं. 

वह अब नौकरी के बारे में नहीं सोचता. अब वह हरदम अपनी आजादी के बारे में ज्यादा सोचता है और हर सुबह उठकर अखबारों में खोजता है कि आजादी की आकांक्षा रखने किन किन लोगों को सजा सुनायी गयी है.

1 comment:

  1. "अगर आप सहम के मर नहीं जाते, तो गारंटी है घुट - घुट कर जी सकते हैं" , एक पत्रकार की नज़र से काफी कुछ कह दिया है दिल्ली के बारे में ,

    ऐसा लेख पढ़ने के लिए धन्यवाद !!

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