Sunday, May 26, 2013

खरीद-फरोख्त


माधव ने करवट बदलनी चाही तो पांव में जोर से टीस उठी और पट्टी के ऊपर तक खून झलक आया। माधव की आंखें भर गईं। वह दर्द से बिलबिला उठा। उसकी हालत देख मालती दौड़कर आई और उसके सिर पर हाथ फिराने लगी। यह इत्तेफाक ही है कि मालती बचपन से एक पैर से विकलांग थी और अब आधी उम्र में आकर माधव भी अपना एक पैर गवां बैठा। पैर कई जगह से टूट गया था। एक महीने से माधव चारपाई पर पड़ा है। चकनाचूर हुई हड्डियां कैसे जुड़ेंगी, यह उसका ईश्वर भी नहीं जानता।
माधव दिहाड़ी मजदूरी करके पेट पालता था। कभी कभी तो गांव के बाबू साहबान की बेगारी में ही दिन गुजर जाया करता था, लेकिन अब तक कम से कम खाने के लाले कभी नहीं पड़े। यूं तो दलितों की सुरक्षा के लिए विशेष कानून बन गया था, लेकिन माधव कहता कि न जमीन न जायदाद, जिनकी खाते हैं, उन्हीं से रार ठान लेने से क्या होगा। रोजी-रोटी में खलल पड़ेगा, सो अलग से। हमें खाने के लाले पड़े रहते हैं, सरकार ससुरी चूतियापे में उलझी रहती है। हरिजन एक्ट आ गया तो हमें रोटी तो नहीं मिल गई। करनी तो दूसरे की बेगार ही है।
उसकी बाजुओं में ताकत थी और खून-पसीना बहाकर रोटी का जुगाड़ होता था। उस दिन वह ठेकेदार रघुराज सिंह के साथ गया था ट्रक पर लकड़ी लदवाने। दो लोग ऊपर से रस्सी में बांध कर सिल्ली खींच रहे थे। दो लोग नीचे से लट्ठे से ठेल रहे थे। माधव भी नीचे ही था। अचानक रस्सी टूट गई। माधव के साथ लगा दूसरा आदमी झट से अलग हो गया और सिल्ली सीधे आकर माधव के पैर पर गिरी। माधव का पैर जब तक लकड़ी के नीचे से निकाला गया, तब तक माधव अधमरा हो चुका था। ठेकेदार उसे लदवाकर अस्पताल ले गया और प्राथमिक चिकित्सा के बाद लाकर घर छोड़ दिया।
माधव का पैर बुरी तरह छीछालेदर हो गया था। डाॅक्टर ने कहा था किसी बड़े अस्पताल ले जाकर आॅपरेशन कराना होगा, लेकिन ठेकेदार ने कान नहीं दिया। अगले दिन माधव की जगह दूसरा मजदूर आ गया और ठेकेदार का धंधा पूर्ववत रफ्तार पर आ गया।
माधव का जीवन नरक हो गया। बिस्तर पर पड़ा-पड़ा दर्द से बिलबिलाता रहता। पैर पर बंधी पट्टियां खून से सनी रहतीं, जिस पर मक्खियां भिनकने से रोकने के लिए मालती हरदम उसके पास बैठी पंखा डुलाती रहती। माधव को दर्द से बिलबिलाता देख जार-जार रोती रहती।
बिस्तर पर पड़े-पड़े महीना भर गुजर गया, माधव दोबारा डाॅक्टर के यहां नहीं जा सका। किसी भी दिहाड़ी मजदूर की तरह उसके कलाई की ताकत ही उसकी संपत्ति, उसका बैंक-बैंलेंस थी। सुबह से शाम जितना खटता, शाम को उतना ही लेकर लौटता और जिंदगी एक दिन आगे खिसक जाती। एक हादसे ने उससे सब छीन लिया। पूरा परिवार अब सूखी रोटी को भी मोहताज हो गया, जो कम से कम एक जून तो मिलती ही थी।
उसकी बीवी जब तब ठेकेदार के दरवाजे जाती, बड़ी देर तक रिरियाती-रोती और चली आती। एक रोज ठेकेदार ने दुत्कार कर भगा दिया। वह रोती-फफकती लौट आई और फिर कभी किसी से कुछ कहने नहीं गई।
जिसका कोई नहीं होता, उसे अपने बल, अपने तौर-तरीके पर ही भरोसा होता है। अपने आसपास की प्रकृति, जल-जंगल पर भरोसा होता है। उसी में उसका विज्ञान-भूगोल सब रचा बसा होता है। यही मालती के साथ शुरू हो गया। अब वह माधव की चटनी हो गई टांग पर तरह के घरेलू नुस्खे आजमाने लगी। खर-पतवार पीस कर लेप लगाती। कभी हल्दी-तेल में लपेट कर बैंगन बांधती। पर इससे क्या होना था। पैर का तो जैसे कीमा बन गया था। गांव के लोग अपनी-अपनी सहानुभूति लेकर आते और देकर चले जाते। साथ ही कुछ सलाह भी दे जाते कि ऐसा करो, वैसा करो।
मालती ने एक रोज गांव में कई लोगों से थोड़ा थोड़ा करके दो हजार रुपये कर्ज लिए और माधव को रिक्शे पर लाद कर अस्पताल ले गई। दो हजार रुपये उसकी जांच के लिए भी अपर्याप्त थे। मालती निराश हो माधव को लेकर लौट आई और फिर अस्पताल जाने के बारे में सोचना छोड़ दिया।
माधव जैसे करवट लेता या हिलने की कोशिश करता, घाव से खून छलक आता। वह इतनी जोर से चीखता कि जैसे आसमान फटा हो। वह बार-बार कहता- ऐसे जीने का क्या फायदा। इससे अच्छा तो मर जाता।
एक दिन गांव के एक बुजुर्ग ने सलाह दी- अरे मालती, कुछ इंतजाम करो भाई! ऐसे घुरच-घुरच कर मर जाएगा बेचारा। मालती बोली- क्या करूं मालिक। कोई जमीन जायदाद, गहना जेवर होता तो वही बेंच देती। मेरे पास तो कुछ है भी नहीं, कहां से लाउं, क्या करूं।
- अरे क्यों नहीं है, घर तो है। दस, बीस गज जितना है, कुछ तो आएगा। बेच दो या गिरवी रख दो। मार डालोगी उसे। मालती बोली- बेच दूं, मगर ये दो छोटे-बच्चे रहेंगे कहां? हमारे पास जो कुछ जमा-पूंजी है, यही एक घर तो है।
घर दांव पर लगा कर पैसा जुटाने की सलाह इतने लोगों ने दे डाली कि मालती को भी यही ठीक लगा और आखिर उसने गांव के ही एक व्यक्ति को पच्चीस हजार रुपये मंे घर गिरवी रख दिया। मालती ने भले इतनी रकम जीवन में पहली बार देखी हो, लेकिन माधव के इलाज के लिए वह ऊंट के मुह में जीरा थी। माधव की जो हालत थी, उसमें उसका न बच पाना पहले से तय था। वह बच सकता था यदि उसके पास किसी डाक्टर को थमाने के लिए अथाह रोकड़े होते। नेता से सिफारिश लगवाने के लिए रसूख होता। अधिकारी को घूस देने के लिए पैसे होते।
माधव के पैर पर प्लास्टर बंध गया और इतने में ही सब पैसे फुर्र हो गए। मालती उसे लेकर फिर घर आ गई। अब आगे की दवा कैसे हो?
गांव के कुछ लोग ठेकेदार को दबी जुबान भला-बुरा कहने लगे। यह बात ठेकेदार तक पहुंची। उसके गुर्गों ने सलाह दी-मालिक आप ही के सर कालिख लगेगी। सब कहते हैं कि गरीब गुरबा है। उसकी टांग तोड़कर फेंक दिया। नीच जाति के सब लोग आपको ही बद्दुआ देते हैं।
ठेकेदार का दिमाग ठनका। उसने अपने बुजुर्ग गुर्गे को जुगत ढूंढने की जिम्मेदारी सौंपी। बुजुर्ग गुर्गे ने उपाय ढूंढा और ठेकेदार से सलाह मशविरा कर पहुंच गया मालती के घर। गुर्गे ने मालती से कहा-देखो मालती, यह मर जाएगा तो बड़ा पाप लगेगा। अब तुम्हारे पास बच्चों को पालने के लिए भी कुछ नहीं है। घर भी गिरवी है। बिटिया तुम्हारी बारह साल की हो गई है। हमारी मानों तो इसका बियाह कर दो। पचास हजार रुपये दिला दूंगा। माधव की दवा भी हो जाएगी और बेटी की शादी भी निपट जाएगी। दो-दो बोझ एक साथ उठ जाएगा। मालती ने पूछा-बियाह कराओगे किससे? गुर्गे ने कहा-मेरी रिश्तेदारी में एक हैं तुम्हारी ही बिरादरी के, थोड़े गर्जवान हैं। उन्हीं को कन्यादान कर दो। मालती ने ज्यादा छानबीन नहीं की। उसे  पति की जान बचाने का लोभ हो गया। सोचा-ऐसे भी यहां भूखों मरती है। तीन दिन से चूल्हा नहीं जला है। जाएगी कहीं तो कम से कम दो जून की रोटी तो मिलेगी। मालती ने दिल पर पत्थर रखकर सौदा तय कर लिया।
अगले दिन गुर्गा बच्ची को यह वादा करके अपने साथ ले गया कि यहां विवाह वगैरह तो हो नहीं सकता। वहीं कहीं मंदिर में करा देंगे। तुम चिंता न करो। तुम्हारी बेटी तो हमारी भी बेटी ही है। जब दुर्दिन आतें हैं तो अक्ल भी मारी जाती है। मालती इस सबके पीछे का षडयंत्र नहीं सोच सकी। गुर्गे ने ठेकेदार से पचास हजार रुपये लेकर मालती को दिए और बच्ची को एक लाख में बेच दिया। पचहत्तर हजार ठेकदार ने ले लिया और पच्चीस हजार गुर्गे ने। मालती अगले रोज माधव को लेकर फिर अस्पताल गई।
जिस दिन माधव की मौत हुई, गुर्गे ने ठेकेदार को बताया कि जिसे लड़की बेची थी, उन्होंने भी डेढ़ लाख में किसी और को बेच दी। मालती-माधव को यह बात कभी पता नहीं चल सकी।